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________________ १४० : बैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय उल्लेख है वह ग्रन्थ वर्तमान श्वेताम्बर-दिगम्बर परम्परा का उपलब्ध पंचसंग्रह तो नहीं हो सकता। अन्यथा हमें मूलाचार की तिथि को काफी नीचे ले जाना होगा । गाथा के सन्दर्भ स्थल को देखते हुए उसे प्रक्षिप्त भी नहीं कहा जा सकता । यद्यपि यह बात निश्चित ही सत्य है कि पंचसंग्रह में जिन ग्रन्थों का संग्रह किया गया है, उनमें कुछ ग्रंथ शिवशर्मसूरि की रचनाएँ हैं और इस दृष्टि से प्राचीन भी हैं। सम्भव, यही लगता है कि उपलब्ध पंचसंग्रह के पूर्व भी कर्म सिद्धान्त से सम्बन्धित कसायपाहुड़ सतक, सित्तरी आदि कुछ ग्रंथों का एक संग्रह रहा था और जो संग्रह नाम से प्रसिद्ध था। हो सकता है कि मुलाचारकार ने उसी का उल्लेख किया हो । थुदि या स्तुति से मूलाचार का तात्पर्य किस ग्रन्थ से है, यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है। टीकाकार वसूनन्दी ने इसका तात्पर्य समन्तभद्र के देवागम नामक स्तुति रचना से लिया है, किन्तु मेरी दष्टि में वसुनन्दी की यह मान्यता उचित नहीं है । प्रथम तो समन्तभद्र का काल ही विवादास्पद है। दूसरे वस्तुतः 'थुदि' कोई प्राकृत रचना ही रहनी चाहिए। श्वेताम्बर परम्परा में 'थुई' के नाम से वीरत्थुई और 'देविंदत्थुओ' इन दो का उल्लेख मिलता है वीरत्थुई-सूत्रकृतांग का ही एक अध्याय है, किन्तु उसका स्वतन्त्र रूप से स्वाध्याय करने की परम्परा प्राचीनकाल से आज तक रही है। देविदत्थुओ की गणना दस प्रकीर्णकों में की जाती है। वैसे प्रकीर्णकों में ही 'वीरत्थओ' (वीर-स्तव) एक स्वतन्त्र ग्रन्थ भी है, किन्तु इसकी विषयवस्तु सूत्रकृतांग के छठे अध्याय वीरत्थुई से भिन्न है, मेरी दृष्टि में यह परवर्ती भी लगता है। मूलाचार की प्रस्तुत गाथाओं में जिन ग्रन्थों के नामों का उल्लेख है, उनमें अधिकतर श्वेताम्बर परम्परा के प्रकीर्णकों के नामों से मिलते हैं। अतः प्रस्तुत गाथा में 'थुदि' नामक ग्रंथ से तात्पर्य प्रकीर्णकों में समाविष्ट 'देविंदत्थओ' से ही होना चाहिए । अतः 'थुदि' से मूलाचार का तात्पर्य या तो सूत्रकृतांग के छठे अध्याय में अन्तनिहित 'वीरत्थुई' से रहा होगा या फिर देविदत्थओ नामक प्रकीर्णक से होगा क्योंकि यह भी ईसा पूर्व प्रथम शती में रचित एक प्राचीन प्रकीर्णक है । (इस सम्बन्ध में मेरे द्वारा सम्पादित एवं आगम संस्थान द्वारा प्रकाशित 'देविदत्थओ' की भूमिका देखें) प्रकीर्णकों में समाहित वीरत्थओ मुझे मूलाचार की अपेक्षा परवर्ती रचना लगती है। पच्चक्खाण नामक ग्रन्थ से मलाचार का मन्तव्य क्या है, यह भी विचारणीय है। दिगम्बर परम्परा में पच्चक्खाण नामक कोई ग्रन्थ रहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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