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________________ १३२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय किया गया है वह इसे दिगम्बर ग्रन्थ मानने में बाधा उत्पन्न करता है। दिगम्बर परम्परा के बहुश्रुत विद्वान् पं० नाथूराम प्रेमी ने अनेक तर्कों के आधार पर कहा है कि यह दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ नहीं है। अतः यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि यदि मूलाचार श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों में से किसी परम्परा का ग्रन्थ नहीं है तो फिर किस परम्परा का ग्रन्थ है ? यह स्पष्टतः सत्य है कि यह ग्रन्थ अचेलकता आदि के सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा के निकट है किन्तु स्त्री-दीक्षा, स्त्री-मुक्ति, आगमों को मान्य करने आदि कुछ बातों में श्वेताम्बर परम्परा से भी समानता रखता है। इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि यह ग्रन्थ एक ऐसी परम्परा का ग्रन्थ है जो कुछ रूप में श्वेताम्बरों और कुछ रूप में दिगम्बरों से समानता रखती थी। डॉ. उपाध्ये, पं० नाथूराम प्रेमी के लेखों एवं प्राचीन भारतीय अभिलेखीय तथा साहित्यिक साक्ष्यों के अध्ययन से अब यह स्पष्ट हो गया है कि श्वेताम्बर और दिगम्बरों के बीच एक योजक सेतु का काम करने वाली 'यापनीय' नाम की एक तीसरी परम्परा भी भी थी। हम पूर्व में यह भी स्पष्ट कर चुके हैं कि यापनीय परम्परा जहाँ अचेलकत्व पर बल देने के कारण दिगम्बर परम्परा के निकट थी वहीं स्त्रीमुक्ति, केवलीमुक्ति और आगमों की उपस्थिति, आपवादिक रूप में वस्त्र एवं पात्र का उपयोग आदि बातों में श्वेताम्बर परम्परा के निकट थी। मूलाचार की रचना इसी परम्परा में हुई है, इस सम्बन्ध में कुछ अधिक विस्तार से चर्चा करें बहुश्रुत दिगम्बर विद्वान पं० नाथूराम जी 'प्रेमी' ने इसे यापनीय परम्परा का ग्रन्थ माना है, इस सम्बन्ध में वे लिखते हैं कि "मुझे ऐसा लगता है कि यह ग्रन्थ कुन्दकुन्द का तो नहीं ही है, उनकी विचार परम्परा का भी नहीं है, बल्कि यह उस परम्परा का जान पड़ता है, जिसमें शिवार्य और अपराजित हुए हैं । कुछ बारीकी से अध्ययन करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है। १-मूलाचार और भगवतीआराधना की पचासों गाथायें एक-सी और समान अभिप्राय प्रकट करने वाली हैं । २-मूलाचार 'आचेलक्कुद्देसिय' आदि ९०९वीं गाथा भगवतीआराधना का ४२१वीं गाथा है। इसमें दस स्थिति कल्पों के नाम हैं। जीतकल्पभाष्य की १९७२वीं गाथा भी यही है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अन्य टीकाग्रन्थों और नियुक्तियों में भी यह है । प्रमेयकमलमार्तण्ड 'स्त्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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