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यापनीय साहित्य : १३१
अंश प्रथम श्रुतस्कंध में अचेलता का प्रतिपादन होते हुए भी मुनि के वस्त्र ग्रहण 'सम्बन्धी कुछ उल्लेख, फिर चाहे वे आपवादिक स्थिति के क्यों न हों, पाये ही जाते हैं । यही कारण था कि अचेलकत्व पर अत्यधिक बल देने वाली दिगम्बर परम्परा अपने सम्प्रदाय में मान्य न रख सकी और उसके स्थान पर मूलाचार को ही अपनी परम्परा का मुनि आचार सम्बन्धी ग्रन्थ मान लिया । आर्यिका ज्ञानमती जी ने भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित मूलाचार की भूमिका में यह लिखा है कि आचारांग के आधार पर चौदह सौ गाथाओं में ग्रन्थकर्ता ने इस ग्रन्थ की रचना की; किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि यह ग्रन्थ आचारांग और विशेष रूप से उसके प्राचीनतम अंश प्रथम श्रुतस्कंध के आधार पर तो बिलकुल ही नहीं लिखा है । जिन ग्रन्थों के आधार पर मूलाचार की रचना हुई है वे श्वेताम्बर परम्परा के मान्य बृहत् प्रत्याख्यान, आतुरप्रत्याख्यान, आवश्यक निर्युक्ति, जीवसमास आदि हैं जिनकी सैकड़ों गाथाएँ शौरसेनी रूपान्तरण के साथ इसमें गृहीत की गई हैं। वस्तुतः मूलाचार श्वेताम्बर परम्परा में मान्य नियुक्तियों एवं प्रकीर्णंकों की विषयवस्तु एवं सामग्री से निर्मित है ।
यद्यपि हमें स्पष्ट रूप से इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि यह ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा का ग्रन्थ नहीं माना जाना चाहिए । क्योंकि इसमें अचेलकत्व पर जितना अधिक बल दिया गया है उतना श्वेताम्बर परम्परा के आचारांग को छोड़कर किसी भी आचारपरक ग्रन्थ में नहीं मिलता । इसे श्वेताम्बर परम्परा का ग्रन्थ मानने में दूसरी कठिनाई यह है कि इसकी भाषा न तो अर्धमागधी है और न महाराष्ट्री प्राकृत ही; वस्तुतः इसमें अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत में रचित श्वेताम्बर मान्य आगम ग्रन्थों की सैकड़ों गाथाएं शौरसेनी रूपान्तरण में मिलती हैं । किन्तु इस आधार पर इसे श्वेताम्बर परम्परा का ग्रन्थ नहीं कह सकते क्योंकि अभी तक श्वेताम्बर परम्परा का कोई भी ग्रन्थ शौरसेनी प्राकृत में लिखा गया ज्ञात नहीं होता ।
यह स्पष्ट सत्य है कि शौरसेनी प्राकृत में लेखन कार्यं मुख्यतः अचेल परम्परा में ही हुआ है, किन्तु कुछ ऐसे तथ्य हैं जिनके आधार पर यह भी नहीं कहा जा सकता कि यह दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ है । सर्वप्रथम तो इसमें आर्यिका को श्रमण के समकक्ष मानकर उसकी मुक्ति का जो विधान
१. मूलाचार ( स ० ज्ञानमती माताजी - भारतीय ज्ञानपीठ), भूमिका, पृ० ।
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