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यापनीय साहित्य : १२१ का प्रयोग किया है। साथ ही जिणनन्दी और सर्वगुप्त को गणि भी कहा है। मथुरा एवं विदिशा के अभिलेखों एवं कल्प तथा नन्दीसूत्र की स्थविरावलियों से हमें यह ज्ञात होता है कि ईसा की पांचवीं शती तक मुनियों के नामों के आगे 'आर्य' तथा साध्वी के लिए 'आर्या' शब्द के प्रयोग का प्रचलन था तथा आचार्य को गणि शब्द से अभिसूचित किया जाता था ।' विदिशा के अभिलेख में तो आर्यकुल का भी उल्लेख है । यह आयंकुल यापनीय था-यह बात हम पूर्व में बता चुके हैं। विदिशा के एक अभिलेख में आर्यचन्द्र के लिए 'पाणितल भोजी' विशेषण का प्रयोग हुआ है। आराधना में शिवार्य ने भी अपने लिए 'पाणितल भोजी' का विशेषण प्रयोग किया है । अतः दोनों एक ही परम्परा के प्रतीत होते हैं। मुनि के नाम के साथ 'आर्य' विशेषण का प्रयोग श्वेताम्बर और यापनीय परम्पराओं में लगभग छठी-सातवीं शती तक प्रचलित रहा है, जबकि 'दिगम्बर परम्परा में इसका प्रयोग नहीं देखा जाता है । शिवार्य के साथ लगे हुए 'वाय' और 'पाणितल भोजी' विशेषण उन्हें यापनीय आर्यकुल से सम्बन्धित सिद्ध करते हैं। उनके गुरुओं के नन्दि नामान्तक नामों के आधार पर भी उनका सम्बन्ध यापनीय परम्परा के नन्दीसंघ से माना जा सकता है।
जिनसेन ने अपने आदिपुराण में इन्हें शिवकोटि कहा है। यद्यपि कुछ दिगम्बर ग्रन्थों में शिवकोटि को समन्तभद्र का शिष्य बताने का प्रयास किया गया है। किन्तु यह मत भ्रामक है। पं० नाथूराम जी प्रेमी ने इस मत का अपने 'आराधना और उसकी टीका' नामक लेख में विस्तारपूर्वक खण्डन किया है । शाकटायन ने शिवायं के गुरु सवंगुप्त को बड़ा भारी व्याख्याता बताया है। चूंकि शाकटायन भी यापनीय हैं। अतः
१. देखें-जैनशिलालेखसंग्रह भाग २ (माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला
समिति, लेख क्रमांक १६, २२, २४, २६, २९, ३०, ३१, ३३, ३६,
४१, ४५, ५१, ५४, ५५, ५६, ५९ । २. देखें-वही, लेख क्रमांक ९१ । ३. जर्नल आफ ओरियन्टल इन्स्टिट्यूट बड़ौदा, जिल्द १८ (सन् १९६९)
पृ० २४७-५१, थ्री इन्स्क्रिप्शन्स आफ रामगुप्त-जी० एस० घई। ४. आदिपुराण (जिनसेन) १/४९। ५. देखें-जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ७६ । ६. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ७६-७७ ।
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