SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय शिवार्य के गुरु के सम्बन्ध में उनकी जानकारी प्रामाणिक है। इस आधार पर सर्वगुप्त और शिवार्य यापनीय परम्परा से ही सम्बद्ध सिद्ध होते हैं।' पुनः भगवतीआराधना और उसकी विजयोदया टीका के सन्दर्भ में अपना मत प्रकट करते हुए पं० कैलाशचन्द्र जी अपने प्रधान सम्पादकीय में लिखते हैं कि "भगवती आराधना ग्रन्थ जैन साधु के आचार से सम्बद्ध एक प्राचीन ग्रन्थ है और उसकी टीका विजयोदया भी इस दृष्टि से अपना विशेष महत्व रखती है। ये दोनों एक तीसरे सम्प्रदाय के माने जाते हैं, जो न दिगम्बर था न श्वेताम्बर । दिगम्बर सम्प्रदाय आगम ग्रन्थों को मान्य नहीं करता है और श्वेताम्बर सम्प्रदाय साधुओं के वस्त्रपादवाद आदि का समर्थक ही नहीं, किन्तु पोषक है । किन्तु इस ग्रन्थ और टीका से स्पष्ट प्रतीत होता है कि एक ओर इनके रचयिता आगम ग्रन्थों को मान्य करते थे तो दूसरी ओर वे वस्त्रपात्रवाद के घोर विरोधी प्रतीत होते हैं । इससे यह फलित होता है कि वे ऐसे सम्प्रदाय के अनुयायी हैं, जो न आगम ग्रन्थों को अमान्य ही करता है और न वस्त्रपात्रवाद को. स्वीकार ही करता है। ऐसा सम्प्रदाय यापनीय ही हो सकता है । इस सत्य को स्वीकार करके भी अपने सम्प्रदाय के व्यामोह में आगे पंडित जी लिखते हैं कि “इस ग्रन्थ में न तो स्त्री मुक्ति का ही समर्थन है और न केवली मुक्ति का, प्रत्युत अन्त में स्त्री से भी वस्त्र त्याग कराने की इसमें चर्चा है और यापनीय संघ की ये दोनों मान्यताएं बतलायी जाती हैं। किन्तु हम यह नहीं मान सकते कि इस ग्रन्थ के कर्ता और टीकाकार सवस्त्र मुक्ति या स्त्री मुक्ति के समर्थक होंगे। आश्चर्य यह है कि आदरणीय पंडित जी एक ओर स्पष्ट रूप से यह स्वीकार करते हैं कि यह ग्रन्थ एक ऐसे सम्प्रदाय का ग्रन्थ है जो न दिगम्बर था और न श्वेताम्बर । वे यह भी मानते हैं कि ऐसा सम्प्रदाय यापनीय ही हो सकता है। यापनीय स्त्रीमुक्ति और केवलीमुक्ति का समर्थन करते थे-यह तथ्य भी वे स्वयं तथा अन्य विद्वान् स्वीकार करते हैं । यापनीय आचार्य शाकटायन ने तो स्वयं ही स्त्रीमुक्ति-केवलीमुक्ति प्रकरण लिखा है । किन्तु यह देखकर कि इस ग्रन्थ में स्पष्ट रूप से स्त्रीमुक्ति और केवलीभुक्ति की चर्चा नहीं है, वे इस ग्रन्थ, उसके कर्ता और टीकाकार को सवस्त्र १. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ७७ । २. भगवती आराधना (शोलापुर), प्रधान सम्पादकीय, पृ० १ । ३. वही, पृ०१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy