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________________ यापनीय साहित्य : ११९ तित्थोगालीय प्रकरण श्वेताम्बरों के अनुकूल ग्रन्थ है, ऐसा उसके अध्ययन से प्रतीत होता है । उसमें तीर्थंकरों की माताओं के १४ स्वप्नों का उल्लेख है- – गा० १००, १०२४, स्त्री-मुक्ति का समर्थन भी इसमें किया गया है - गा० ५५६; आवश्यक नियुक्ति की कई गाथाएँ इसमें आती हैं गा० ७० से, ३८३ से इत्यादि; अनुयोगद्वार और नन्दी का उल्लेख और उनके तीथंपर्यन्त टिके रहने की बात, दशआश्चर्य की चर्चा गा० ८८७ से, नन्दी सूत्रगत संघस्तुतिका अवतरण गा० ८४८ से है । आगमों के क्रमिक विच्छेद की चर्चा जिस प्रकार जैनों में है उसी प्रकार बौद्धों के अनागतवंश में भी त्रिपिटक के विच्छेद की चर्चा की गई है । इससे प्रतीत होता है कि श्रमणों की यह एक सामान्य धारणा है कि श्रुत का विच्छेद क्रमशः होता है । तित्थोगाली में अंगविच्छेद की चर्चा है । इस बात को व्यवहारभाष्य के कर्ता ने भी माना है " तित्थोगाली एत्थं वत्तव्वा होइ आणुपुव्वीए । जे तस्स उ अंगस्स वुच्छेदो जहि विणिदिट्ठो ॥" - व्य० भा० १०.७०४ इससे जाना जा सकता है कि अंगविच्छेद को चर्चा प्राचीन है और यह दिगम्बर- श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में चली है। ऐसा होते हुए भी यदि श्वेताम्बरों ने अंगों के अंश को सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया और वह अंश आज हमें उपलब्ध है - यह माना जाय तो इसमें क्या अनुचित है ? एक बात का और भी स्पष्टीकरण जरूरी है कि दिगम्बरों में भी धवला के अनुसार सर्व अंगों का सम्पूर्ण रूप से विच्छेद माना नहीं गया है किन्तु यह माना गया है कि पूर्व और अंग के एकदेशधर हुए हैं और उनकी परम्परा चली है । उस परम्परा के विच्छेद का भय तो प्रदर्शित किया है किन्तु वह परम्परा विच्छिन्न हो गई, ऐसा स्पष्ट उल्लेख धवला या जयधवला में भी नहीं है । वहाँ स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि वीरनिर्वाण के ६८३ वर्ष बाद भारतवर्ष में जितने भी आचार्य हुए हैं वे सभी "सब्वेमिंगपुण्वाणमेकवेसधारया जादा" अर्थात् सर्व अंग-पूर्व के एकदेशधर हुए हैं - जयधवला भा० १, पृ० ८६; धवला, पृ० ६७ । तिलोय पण्णत्ति में भी श्रुतविच्छेद की चर्चा है और वहाँ भी आचारांगधारी तक का समय वीरनि० ६८३ बताया गया है । तिलोयपण्णत्त के अनुसार भी अंग श्रुत का सर्वथा विच्छेद मान्य नहीं है । उसे भी अंग-पूर्व के एकदेशधर के अस्तित्व में सन्देह नहीं है । उसके अनुसार Jain Education International For Private & Personal Use Only -- www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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