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________________ ११८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय दिगम्बर समाज श्रुत का ही विच्छेद मानता है। इससे भी सिद्ध है कि पुस्तक में लिखित आगमों का उतना ही महत्त्व नहीं है जितना श्रुतधरों की स्मृति में रहे हुए आगमों का । . जिस प्रकार धवला में श्रुतधरों के विच्छेद की बात कही है उसी प्रकार तित्थोगाली प्रकीर्णक में श्रुत के विच्छेद की चर्चा की गई है । वह इस प्रकार है प्रथम भगवान महावीर से भद्रबाहु तक की परम्परा दी गई है और स्थूलभद्र भद्राबाहु के पास चौदहपूर्व की वाचना लेने गये इस बात का निदेश है । यह निर्दिष्ट है कि दसपूर्वधरों में अन्तिम सर्वमित्र थे। उसके बाद निर्दिष्ट है कि वीरनिर्वाण के १००० वर्ष बाद पूर्वो का विच्छेद हुआ । यहाँ पर यह ध्यान देना जरूरी है, यही कि उल्लेख भगवती सूत्र में (२.८ ) भी है । तित्थोगाली में उसके बाद निम्न प्रकार से क्रमशः श्रुतविच्छेद की चर्चा की गई हैई० ७२३ = वीर-निर्वाण १२५० में विवाहप्रज्ञप्ति और छः अंगों का विच्छेद ई० ७७३ = ,, १३०० में समवायांग का विच्छेद १३५० में ठाणांग का , १४०० में कल्प-व्यवहार का , ई० ९७३ = , १५०० में दशाश्रुत का , १९०० में सूत्रकृतांग का , ई० १४७३ = ,, २००० में विशाख मुनि के समय में निशीथ का ,, ई० १७७३ = ,, २३०० में आचारांग का , दुसमा के श्रुत में दुप्पसह मुनि के होने के बाद यह कहा गया है कि वे ही अन्तिम आचारधर होंगे। उसके बाद अनाचार का साम्राज्य होगा। इसके बाद निर्दिष्ट है किई० १९९७३ = वीरनि० २०५०० में उत्तराध्ययन का विच्छेद ई० २०३७३ = , २०९०० में दशवैकालिक सूत्र का विच्छेद ई. २०४७३ = , २१००० में दशवैकालिक के अर्थ का विच्छेद, दुप्पसह मुनि की मृत्यु के बाद। ई. २०४७३ = , २१००० पर्यन्त आवश्यक, अनुयोगद्वार और नन्दी सूत्र अव्यवच्छिन्न रहेंगे। -तित्थोगाली गा० ६९७-८६६. 4ir air tir in thirt Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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