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________________ यापनीय साहित्य : ११७ और उसमें साढ़े बारह करोड़ पद थे। किन्तु वास्तविकता तो इससे भिन्न थी उन नामों से उपलब्ध ग्रन्थों का आकार उस कल्पित पद संख्या से बहुत छोटा था, अतः बचाव के लिए यह कहा जाने लगा कि आगम विच्छिन्न हो गये । जब वह श्वेताम्बर परम्परा भी जो आगमों का संरक्षण कर रही थी कहने लगी कि आगम-विच्छिन्न हो रहे हैं, तो दिगम्बर और यापनीय परम्पराओं द्वारा उनके विच्छेद की बात करना स्वाभाविक ही था। श्वेताम्बर परम्परा के आगमिक प्रकीर्णक 'तीर्थोद्गालिक' में भी आगमों के उच्छेद क्रम का उल्लेख है। जब आगमों के होते हुए भी श्वेताम्बर परम्परा उनके विच्छेद की बात कर सकती है, तो यापनीय आचार्यों द्वारा उनके विच्छेद की बात करना आश्चर्यजनक भी नहीं है। अतः आगमों के उच्छेद की बात करने मात्र से किसी ग्रन्थ के यापनीय होने को नकारा नहीं जा सकता है। तिलोयपण्णत्ति में आगमों के विच्छेद की बात आ जाने से भी उसका यापनीय होना नकारा नहीं जा सकता है। क्योंकि आगम विच्छेद की यह चर्चा न केवल दिगम्बर में उठी हो, ऐसी बात नहीं है, वह यापनीयों और श्वेताम्बरों में भी हुई है। इस सम्बन्ध में वास्तविकता क्या है, इस प्रश्न पर पं० दलसुख भाई मालवणिया ने जैन साहित्य के बृहद् इतिहास की भाग १ की प्रस्तावना में गम्भीरता से विचार किया है । हम यहाँ उन्हीं के विचारों को शब्दशः उद्धृत कर रहे हैं अतः पाठक यथार्थता को समझ सके । वे लिखते हैं कि "अब आगमविच्छेद के प्रश्न पर विचार किया जाय । आगमविच्छेद के विषय में भी दो मत हैं। एक के अनुसार 'सुत्त' विनष्ट हुआ है, तब दूसरे के अनुसार 'सुत्त' नहीं किन्तु सुत्तधर-प्रधान अनुयोगधर विनष्ट हुए हैं। इन दोनों मान्यताओं का निर्देश नन्दी-चूणि जितना तो पुराना है ही। आश्चर्य तो इस बात का है कि दिगम्बर परम्परा के धवला (पृ० ६५) में तथा जयधवला ( पृ० ८३ ) में दूसरे पक्ष को माना गया है अर्थात् श्रुतधरों के विच्छेद की चर्चा प्रधान रूप से की गयी है और श्रुतधरों के विच्छेद से श्रुत का विच्छेद फलित माना गया है। किन्तु आज का १. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग १, पृ० ४७, ४८ एवं ५० । ( आधारभूत ग्रन्थ नन्दीवृत्ति, समवायाग वृत्ति और धवला आदि)। २. पइण्णयसुत्ताई-तिथ्योगाली ( महावीर विद्यालय, बम्बई ) गाथा ८०७-८३६, पृ० ४८२-४८४ । ३. नन्दी-चूर्णि, पृ० ८।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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