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११६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय कर रहे हैं। किन्तु तिलोयपण्णत्ति को यापनीय कृति मानने में आगमों का विच्छेद बताने वाली गाथाएँ बहत बाधक नहीं है। प्रथम तो तिलोयपण्णत्ति में पर्याप्त मिलावट हुई है, यह तथ्य दिगम्बर विद्वान् भी स्वीकृत करते हैं। पं० नाथराम जी प्रेमी लिखते हैं कि "इस तरह पं० फूलचन्दजी के लेख से और जयधवला की प्रस्तावना से मालूम होता है कि उपलब्ध तिलोयपण्णत्ति अपने असल रूप में नहीं है। धवला टीका के बाद ( अर्थात् १०वीं शताब्दी के पश्चात् ) उसमें संस्कार संशोधन, परिवर्तन, मिलावट की गई है।" इसी प्रकार जयधवला की प्रस्तावना में पं० फूलचन्द्रजी लिखते हैं कि "वर्तमान तिलोयपण्णत्ति जिस रूप में पाई जाती है, उसी रूप में यतिवृषभ ने उसकी रचना की थी, इसमें सन्देह है । हमें लगता है कि यति वृषभ कृत तिलोयपण्णत्ति में कुछ अंश ऐसा भी है, जो बाद में सम्मिलित किया गया और कुछ अंश ऐसा भी है जो किसी कारण से उपलब्ध प्रतियों में लिखने से छूट गया है।"१ अतः इस सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि मूल तिलोयपण्णत्ति यापनीय कृति रही हो और यतिवृषभ भी यापनीय हो ।
दूसरे मुझे ऐसा लगता है कि जब यापनीय संघ में आगमों के अध्ययन-अध्यापन प्रवृति शिथिल हो गई, अपनी परम्परा में निर्मित ग्रन्थों से ही उनका काम चलने लगा तभी आचार्यों द्वारा आगमों के क्रमिक उच्छेद की बात कही जाने लगी। सर्वप्रथम तिणोयपण्णत्ति, धवला और जयधवला में ही यह चर्चा आई। पुन्नाटसंघीय जिनसेन के हरिवंश के अंत में तो नाम भी नहीं दिये हैं, मात्र विच्छेद काल का उल्लेख किया है । ___ सभी ग्रन्थों में उपलब्ध सूचियों में सामान्यतया नाम और कालक्रम की एकरूपता भी यही बताती है कि इन सभी का मूल स्रोत एक ही रहा होगा । वैसे आगमिक ज्ञान के विच्छेद का अर्थ यह भी नहीं है कि आगमप्रन्थ सर्वथा विच्छेद हो गये। आगमों के एक देश ज्ञान की उपस्थिति तो सभी ने मानी ही है। मेरी दृष्टि में तो जब आगमों की विषय वस्तु एवं पदसंख्या को लेकर हमारे आचार्य उस समय के उपलब्ध ग्रन्थों की उपेक्षा करके उनकी महत्ता दिखाने के लिए कल्पना लोक में उड़ाने भरने लगे और आगमों की पद संख्या लाख और करोड़ की संख्या भी को पार करके आगे बढ़ने लगी और जब यह कहा जाने लगा कि विपाकसूत्र में एक करोड़ चौरासी लाख बत्तीस हजार पद थे अथवा १४वा पूर्व इतना बड़ा था कि उसे लिखने के लिए १४ हाथी डूब जाये इतनी स्याही लगती थी
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