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________________ ९८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय का अध्यापन सौराष्ट्र देश के गिरिनगर की चन्द्रगुहा में कराया था । सौराष्ट्र में प्राचीन काल से लेकर आज तक श्वेताम्बर तथा यापनीय तथा यापनीयों से निकले पुन्नाट और लाड़बागड़ गच्छों का प्रभुत्व रहा है | अतः क्षेत्र की दृष्टि से भी धरसेन या तो उस अविभक्त निर्ग्रन्थ परम्परा के आचार्य हैं जिससे श्वेताम्बरों और यापनीयों का प्रादुर्भाव हुआ है या फिर वे उत्तर भारतीय अचेल यापनीय परम्परा से सम्बद्ध रहे हैं। इस प्रकार साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों, आधारभूत ग्रन्थ, क्षेत्र तथा काल सभी दृष्टियों से धरसेन मूलसंघीय परम्परा से सम्बद्ध न होकर श्वेताम्बर या यापनीय परम्परा से अथवा उनकी पूर्वज उत्तर भारत की अविभक्त निर्ग्रन्थ परम्परा से ही सम्बद्ध प्रतीत होते हैं। पुष्पदन्त और भूतबलि I पुष्पदन्त और भूतबलि षट्खण्डागम के रचियता हैं । इनके उल्लेख नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली के अतिरिक्त कुछ अन्य पट्टावलियों और अभिलेखों में भी मिलते हैं । हरिवंशपुराण की सूची में इनका उल्लेख नहीं है । प्राप्त उल्लेखों में भी कालक्रम और गुरु-परम्परा की दृष्टि से इतनी विसंगतियाँ हैं कि इन दोनों को गुरु-परम्परा का और इनके काल का निर्णय करना कठिन हो जाता है । धवला और जयधवला में यद्यपि पुष्पदन्त और भूतबलि के उल्लेख हैं, किन्तु उनकी गुरु परम्परा और गण आदि के सम्बन्ध में वे स्पष्टतया मोन हैं । धरसेन तो उनके विद्यागुरु ही सिद्ध होते हैं, उनके दीक्षा गुरु कौन थे, वे किस परम्परा और अन्वय के थे, इस सम्बन्ध में हमें धवला, जयधवला और नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली से भी कोई सूचना नहीं मिलती है । भूतबलि और पुष्पदन्त को कुन्दकुन्द की परम्परा से सम्बद्ध बताने के लिए, सिद्धरवसति का ई० सन् १३९८ का, जो अभिलेख उपलब्ध होता है, वह भी इतनी अधिक विसंगतियों से भरा हुआ है कि उसकी विश्वसनीयता समाप्त हो जाती है । उपलब्ध दिगम्बर पट्टावलियों की मुख्य कमी यह है कि वे कल्पसूत्र स्थविराबली के समान अविच्छिन्न गुरु-परम्परा की सूचक नहीं हैं । उनमें गुरु परम्परा या आचार्य परम्परा के स्थान पर नन्दीसूत्र की वाचकवंश स्थविरावली के समान प्रसिद्ध प्रसिद्ध आचार्यों के नामों का संकलन मात्र है । इस संकलन में भी विभिन्न पट्टावलियों में परस्पर असंगतियाँ पायी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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