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________________ यापनीय साहित्य : ९७ क्योंकि धवला में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि वोर निर्वाण के ६८३ वर्ष पश्चात् सम्पूर्ण आचाराङ्ग के धारक लोहार्य हुए। उनके पश्चात् जो भी आचार्य हुए वे सब अंग और पूर्वो के एक देश के धारक थे अर्थात् उन्हें अंग और पूर्वो का आंशिक ज्ञान हो था। अंग और पूर्वो का यह आंशिक ज्ञान आचार्य परम्परा से आता हुआ धरसेन को प्राप्त हुआ।"" धवला का यह कथन महत्त्वपूर्ण है। लोहार्य और धरसेन के बीच के आचार्यों के संदर्भ में धवलाकार का यह अज्ञान स्पष्ट रूप से यह बतलाता है कि कम से कम उनके बीच २०० वर्ष से अधिक का अन्तर रहा होगा। अतः धरसेन वीर निर्वाण के ६८३ + ०० = ८८३ वर्ष पश्चात् अर्थात् ई० सन् की चतुर्थं शताब्दी के बाद ही हुए होगें । परन्तु प्रो० मधुसूदन ढाकी के अनुसार धरसेन का काल ई० सन् की ५-६ठीं शताब्दी के आस-पास है। चाहे हम धरसेन को परवर्ती हो क्यों न स्वीकार करें किन्तु अन्य कुछ ऐसे प्रमाण है, जिनके आधार पर भी उन्हें दक्षिण भारतीय मूलसंघीय परम्परा से सम्बद्ध नहीं माना जा सकता। __यह स्पष्ट है कि धरसेन ने षट्खंडागम की रचना नहीं की थी, उन्होंने तो मात्र पुष्पदन्त और भूतबली को महाकर्मप्रकृति प्राभूत का अध्ययन कराया था। महाकर्मप्रकृति प्राभृत भी उत्तर भारत की अविभक्त निर्ग्रन्थ परम्परा में ही निर्मित हुआ था। नन्दीसूत्र पट्टावली में आर्य नागहस्ति को कर्मप्रकृति और व्याकरण शास्त्र का ज्ञाता कहा गया है। वस्तुतः यही कर्मप्रकृतिशास्त्र आगे चलकर श्वेताम्बर परम्परा में शिवशर्म द्वारा रचित कर्म प्रकृति आदि ग्रन्थों का और यापनीय परम्परा में पुष्पदंत और भूतबलि द्वारा रचित षटखंडागम का आधार बना है। चूँकि यापनीय और श्वेताम्बर दोनों ही इस परम्परा के उत्तराधिकारी थे अतः यह स्वाभाविक ही था कि दोनों परम्पराओं में इस कर्म प्रकृति शास्त्र के आधार पर ग्रन्थ रचनाएं हुई । अतः धरसेन उत्तर भारतीय निर्ग्रन्थ संघ के ही आचार्य सिद्ध होते हैं । यदि हम धरसेन के विहार क्षेत्र की दृष्टि से भी विचार करें तो भी यह स्पष्ट है कि उन्होंने पुष्पदन्त और भूतबलि को महाकर्मप्रकृतिशास्त्र १. षट्खंडागम-धवलाटीका खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ६६-६८ २. प्रो० एम० ए० हाकी के अप्रकाशित लेख 'षट्खण्डागम का रचना काल" पर आधारित ३. नन्दीसूत्र-स्थविरावली ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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