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________________ ९६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय आर्यवज्रसेन का तथा आर्यवज्र से वज्री शाखा और आर्यवज्रसेन से नागली शाखा के निकलने का उल्लेख है। वज्रसेन का काल वीर निर्वाण के ६१६ से ६१९ माना गया है। ये नागहस्ति के समकालीन भी हैं। नन्दीसंघ की प्राकृत पावली के अनुसार धरसेन का काल भी यही है। सबसे महत्त्वपूर्ण सूचना यह है कि मथुरा के हविष्क वर्ष ४८ के एक अभिलेख में ब्रह्मदासिक कूल और उच्चनागरी शाखा के 'धर' का उल्लेख है। लेख के आगे के अक्षरों के घिस जाने के कारण पढ़ा नहीं जा सका, हो सकता है, पूरा नाम 'धरसेन' हो। क्योंकि कल्पसूत्र स्थविरावली में शान्तिसेन, वज्रसेन आदि सेन नामान्तक नाम मिलते हैं। अतः इसे धरसेन होने की सम्भावना को निरस्त नहीं किया जा सकता है। इस काल में हमें कल्पसूत्र स्थविरावली में एक पुसगिरि का भी उल्लेख मिलता है ही सकता है, ये पुष्पदंत हों। इसी प्रकार नन्दीसूत्र वाचकवंश स्थविरावली में भूतदिन्न का भी उल्लेख है । इनका समीकरण भूतबलि से किया जा सकता है। यह महत्त्वपूर्ण है कि भूतदिन्न उसी नागिल शाखा के हैं, जो प्रज्ञाश्रमण वज्रसेन से प्रारम्भ हुई थी। यद्यपि इस सन्दर्भ में अभी अधिक प्रमाणों की खोज और गम्भीर चिन्तन की अपेक्षा है फिर भी यदि धरसेन वीर निर्वाण की छठी शताब्दी में हुए हैं और वे ही योनिप्राभृत के कर्ता हैं तो वे मथुरा के उक्त अभिलेख के आधार पर श्वेताम्बरों और यापनीयों के ही पूर्वज हैं। इस अभिलेख का काल और नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली से दिया गया धरसेन का काल समान ही है। योनिप्राभूत के श्वेताम्बर परम्परा में मान्य होने से भी उनका श्वेताम्बरों और यापनीयों की पूर्वज उत्तर भारतीय निर्ग्रन्थ धारा का होना ही सिद्ध होता है। यदि हम नन्दिसंघ की प्राकृत पट्टावली और मथुरा के पूर्वोत्तर अभिलेख से अलग हटकर षट्खंडागम की टीका धवला के आधार पर धरसेन के सम्बन्ध में विचार करें तो हमें उनका काल ई० सन् की दूसरी शती से नीचे उतारकर चौथी-पांचवीं या छठी शताब्दी तक लाना होगा, १. महाराजस्य हुविष्कस्य स ४०८ हे ४ दि ५ बमदासिये कुल () उ (च)ो नामरिय शाखाया घर। -जैन शिलालेख संग्रह भाग २ लेख क्रमांक ५० पृ० ३८ २. भूमहिययप्पगन्भे वंदे हं भूयदिण्णमायरिए । -नन्दीसूत्र ३९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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