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STUDIES IN JAINISM
स्मरणरूप होगा। उस दशा में स्मरण से शिला प्रतीत होगी और उसका भेद वृक्ष में प्रतीत होगा। भेद का ज्ञान प्रतियोगी के ज्ञान के बिना नहीं होता। प्रतियोगी जब प्रत्यक्ष हो, तब प्रतियोगी के ज्ञान पर आश्रित भेद के ज्ञान को प्रत्यक्ष माना जा सकता है। जब प्रतियोगी का ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान पर आश्रित न हो तब भेद का ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। स्मरण में प्रतिभासित होनेवाली शिला प्रत्यक्ष नहीं है। इसलिये वृक्ष में शिला का भेद स्मृतिद्वारा उत्पन्न मानना चाहिये । स्मरण ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभव से भिन्न है। यदि स्मरण से उत्पन्न भेद ज्ञान को भी प्रत्यक्ष कहा जाय तो धूम के देखने से जिस परोक्ष वहूनि का अनुमान हुआ है उस वहूनि का भेद वृक्ष में प्रतीत होता है । उस वहनि से भिन्न वक्ष के प्रत्यक्ष को भी प्रत्यक्ष कहना पडेगा । परंतु यह स्पष्ट अनुभव के विरुद्ध है । जिस प्रकार अनुमान से निश्चित परोक्ष वहूनि का शिला में भेद चक्षु से उत्पन्न ज्ञान का विषय नहीं हो सकता, इस प्रकार त्रिभुवन के समस्त अर्थों का सामान्य रूप से ज्ञान होने के कारण वृक्ष में जो समस्त अर्थों का भेद प्रतीत होता है वह भी प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । अनमान और शब्द प्रमाण से तीन कालों के इन्द्रिय-गम्य तो क्या अतीन्द्रिय अर्थों का भी ज्ञान हो सकता है। इसलिये जो अर्थ इन्द्रियगम्य है अथवा अतीन्द्रिय है, उनका प्रत्यक्ष अर्थ में भेद शब्द अथवा अनुमान पर आश्रित हो सकता है। उसको प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय नहीं माना जा सकता।
उपाध्याय श्री यशोविजयजी अनन्त धर्मात्मक किसी भी वस्तु को प्रत्यक्ष आदि ज्ञानों का विषय सिद्ध करने के लिये अन्य हेतुओं का प्रयोग करते हैं। मेरा निवेदन हैअनुमान और शब्द तीन काल के इन्द्रियगम्य और अतीन्द्रिय अर्थों को परोक्ष रूप से प्रतिभासित करते हैं-इस विषय में किसी का मतभेद नहीं हो सकता । किसी भी धर्मों में अनन्त धर्म हैं, कुछ इन्द्रियों से गम्य हैं और कुछ अगम्य हैं । इन दोनों प्रकार के धर्मों को अनन्त रूप में तो क्या जिनकी संख्या हो सके इस प्रकार के अनेक धर्मों का प्रत्यक्ष भी युक्ति से सिद्ध नहीं होता। इस विषय में उपाध्यायजी कहते हैं-जब किसी घट आदि एक धर्मी के धर्मों का चक्षु आदि से प्रत्यक्ष होता है तो धर्मरूप द्रव्य के साथ धर्मों के अभेद का आश्रय लेने पर जितने भी धर्म घट आदि में अतीत-अनागत अथवा वर्तमान हैं उन सब का प्रत्यक्ष हो जाता है। यदि कहा जाय जिन धर्मों के साथ इन्द्रिय का संबंध है उन्हीं में धर्मों का प्रत्यक्ष हो सकता है। परंतु अतीत-अनागत धर्मों के साथ इन्द्रिय का संबंध नहीं हो सकता इसलिये उनका प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता तो इसका उत्तर इस प्रकार है-जैन तर्क के अनुसार सामान्य दो प्रकार का है- तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य । इन में से जब तिर्यक् सामान्य का ज्ञान होता है अर्थात् सामने रहनेवाले घट में घटत्व का प्रकार रूप से प्रत्यक्ष होता है तो घटत्व के साथ संबंध होने के कारण पुरोवर्ती और वर्तमान काल के घट का जिस प्रकार प्रत्यक्ष होता है इस प्रकार अतीत और अनागत घटों का भी घटत्व के साथ संबंध होने के कारण