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________________ प्रमाणों में नयों का भेद 217 अनन्त धर्मों का ज्ञान एक काल में नहीं कर सकता तो भी इन अनन्त धर्मों का अभाव नहीं सिद्ध होता । पहले जो अनुमान प्रकाशित किया गया है, वह अनन्त धर्मात्मक वस्तु को प्रतिक्षण सिद्ध करता है। __ स्पष्ट रूप से आचार्य श्री अभय देवसूरि-धर्मी के अनन्त धर्मों का ज्ञान उत्पन्न करने में प्रत्यक्ष को असमर्थ और अनुमान को समर्थ कहते हैं। परंतु इसके अनन्तर ही वे कहते हैं-जब भी कोई अर्थ प्रत्यक्ष द्वारा प्रतीत होता है तब वह त्रिभुवन के अन्य समस्त पदार्थों से भिन्न रूप में प्रतीत होता है । भिन्न रूप में अर्थ का यह ज्ञान तब तक नहीं हो सकता जब तक इन अनन्त भेदों का, अर्थ के पारमार्थिक धर्म रूप में ज्ञान न हो । इस प्रकार किसी भी अर्थ के अन्य पदार्थों से भेद रूप अनन्त धर्मों का ज्ञान प्रत्यक्ष द्वारा सिद्ध हो जाता है। (सन्मति का. ३/४२ गा.) इस रीति से अभय देव सरि जी अनन्त धर्मों के ज्ञान को पहले प्रत्यक्ष की शक्ति से बाहर कहते हैं और पीछे प्रत्यक्ष से उसके ज्ञान को संभव भी मानते हैं । श्री. उपाध्याय यशोविजय जी तो स्पष्ट रूप से अनन्त धर्मात्मक वस्तु को प्रत्यक्ष कहते हैं। वे कहते है-अनन्त धर्म अपने धर्मों से अभिन्न है इसलिये जो प्रत्यक्ष अथवा अनुमान ज्ञान धर्मी का प्रकाशक है यह अनन्त धर्मों का भी प्रकाशक है । इस दशा में धर्मी के एक धर्म को प्रकार रूप से जानने के लिये अपेक्षा आवश्यक नहीं है । यदि अपेक्षा न हो तो नय का का स्वरूप नहीं सिद्ध होता । नय के विषय में इस शंका को उठाकर समाधान में वे कहते हैं-यद्यपि अनन्त धर्मों के साथ अर्थ का प्रत्यक्ष होता है । प्रत्यक्ष से ही नहीं अनुमान से भी होता है। परंतु स्पष्ट ज्ञान अपेक्षा के बिना नहीं हो उसकता ।हसको स्पष्ट करने के लिये वे कहते हैं-जब सत्त्व अथवा असत्व आदि किसी एक नियत धर्म को प्रकार रूप से प्रकाशित करना होता है तब यदि शब्द प्रमाण का स्थल हो तो नय की अपेक्षा से ज्ञान उत्पन्न होता है और प्रत्यक्ष का स्थल हो तो अवधि और अवच्छेदक आदि के ज्ञान की अपेक्षा से होता है । उपाध्याय जी प्रत्यक्ष और अनुमान के द्वारा अनन्त धर्मात्मक वस्तु के ज्ञान को सिद्ध करने के लिये आगम के वाक्य को भी प्रमाण रूप में कहते है। वह वाक्य इस प्रकार है-'जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ' (आचा. श्रु. १ अ. ३२-४ सू १२२) ___ मैं यहाँ पर अपना मतभेद नम्रता के साथ प्रकाशित करना चाहता हूँ। विद्वान् लोगों को उसमें जो भूल दिखाई दे उसको प्रकाशित करने का अनुग्रह करें। श्री अभय देवसूरि जी के अनुसार एक अर्थ का समस्त अर्थो से भेद प्रत्यक्ष से प्रतीत होता है। इसलिये प्रत्यक्ष भेदरूप अनन्त धर्मों को स्पष्ट प्रकाशित करता है। परंतु भेद को जब प्रत्यक्ष से प्रकाशित किया जाता है तब प्रतियोगी का प्रत्यत्यक्ष होता है। वृक्ष को जब शिला से भिन्न कहते हैं, तब वृक्ष और शिला दोनों प्रत्यक्ष हों, तो शिला का भेद वृक्ष में प्रत्यक्ष हो सकता है । परन्तु यदि शिला प्रत्यक्ष न हो तो शिला का ज्ञान
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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