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________________ प्रमाणों में नयों का भेद 207 अंश को यदि समुद्र कहा जायगा तो अन्य अंशों को भी समुद्र कहना पडेगा। इस दशा में अनेक समुद्रों की सत्ता माननी पडेगी। और यदि अनेक समुद्र मान लिये जाये तो एक विशाल समुद्र का ज्ञान और व्यवहार न हो सकेगा। इसलिए समुद्र का अंश, अंश ही कहा जाता है। वह अंश न समुद्र है, न समुद्र से भिन्न । समुद्र के अंश के समान वस्तु का जो अंश है वह अंश ही है। वह न संपूर्ण वस्तुरूप है और न अवस्तुरूप है। वस्तु के एक देश का प्रकाशक होने के कारण नय प्रमाण से भिन्न है । इस अभिप्राय को प्रकाशित करने के लिये भट्ट अकलंक देव के श्लोक इस प्रकार हैं - नायं वस्तु न चावस्तु वस्त्वंशः कथ्यते यतः । नासमुद्रः समुद्रो वा समुद्रांशो यथोच्यते ॥ तन्मात्रस्य समुद्रत्वे शेषांशस्यासमुद्रता । समुद्रबहुत्वं वास्यात्तच्चेत्कास्तु समुद्रवित् ।। (त. श्लोक.वा. सू. ६ श्लो. ५-६) आचार्य वादि देवसुरि ने भी इन श्लोकों को उद्धृत कर के नय को प्रमाण और मिथ्या ज्ञान से भिन्न कहा है। (स्या. रत्ना . परि. ७ पृ. १०४४). इसके अनन्तर भट्ट अकलंकदेव कहते हैं - अंश को जिस प्रकार न वस्तु और न अवस्तु माना जाता है किन्तु वस्तु का अंश माना जाता है, इस प्रकार अंशी को भी न वस्तु और न अवस्तु मानना चाहिये । किन्तु उसको अंशी मानना चाहिये । इस रीति से वस्तु तो वह होगी जो अंश और अंशी का समूहरूप होगी। इस दशा में अंशों के प्रकाशक ज्ञान को जिस प्रकार नय कहा जाता है, इस प्रकार अंशी के प्रकाशक ज्ञान को भी नय कहा जाना चाहिये । यदि अंशी का प्रकाशक होने के कारण ज्ञान प्रमाण है तो अंश का प्रकाशक होने के कारण नय को भी प्रमाण मानना चाहिये । यदि नय भी प्रमाण हो जाय तो प्रमाण से भिन्न नय नहीं रहेगा । इसके उत्तर में भट्टाकलंक कहते हैं- जब अंशी का ज्ञान हो और उसके समस्त अंश गौणरूप से प्रतीत हों, तब जो ज्ञान है वह नय ही है। वह द्रव्याथिक नय है। परंतु जब समस्त अंश प्रधानभाव से प्रतीत हों तब वह ज्ञान प्रमाणरूप होता है । इसलिये प्रमाण और नय का भेद है। परन्तु इससे नय को अप्रमाणात्मक नहीं समझना चाहिये । जो प्रमाण नहीं वह अप्रमाण होता है । और जो अप्रमाण नहीं वह प्रमाण होता है । तीसरा कोई प्रकार नहीं है - इसलिये नय को अप्रमाण मानना पडेगा । इस प्रकार का आक्षेप हो सकता है । परन्तु यह युक्त नहीं। प्रमाण और अप्रमाण से भिन्न तीसरा प्रकार है -प्रमाण का एक देश । इसलिये नय प्रमाण का एक देशरूप है। . भट्ट अकलंक के इस आक्षेप-और समाधान को वादि देवसूरि ने भी स्वीकार किया है । (स्या. र. परि. ७.पू. १०४५-१०४६).
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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