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STUDIES IN JAINISM
आ. प्रभाचन्द्र द्वारा प्रणीत न्यायकुमुद-चन्द्र आदि में भी नय का लक्षण इसी प्रकार का है।
प्राय: जैन ताकिकों ने प्रमाण और नय के स्वरूप में जो भेद है उस पर विचार किया है। प्रसिद्ध विद्वान् भट्ट अकलंकदेव नय को प्रमाण स्वरूप नहीं कहते । वे कहते हैं - जो ज्ञान अर्थ का निश्चय करते हैं, वे प्रमाण कहे जाते हैं। और साथही प्रमाणभूत ज्ञान अपने स्वरूप का भी निश्चय कराता है । जैन तर्क के अनुसार अपने स्वरुप और अर्थ का निश्चय करानेवाला ज्ञान प्रमाण कहा जाता है । इस लक्षण को यदि माना जाय तो नय को भी प्रमाण कहना चाहिये । नय भी ज्ञानरूप है और वह ज्ञान अपने स्वरूप और अर्थ का निश्चय कराता है। इसलिये वह भी प्रमाण हो जाना चाहिये । इस प्रकार की शंका हो सकती है। इसके उत्तर में अकलंकदेव कहते हैंइस प्रकार की शंका युक्त नहीं है । नय अर्थ को निश्चित नहीं करता । किन्तु अर्थ के एक देश को निश्चित करता है। इस वस्तु को उन्होंने श्लोक में कहा है -
स्वार्थनिश्चायकत्वेन प्रमाणं नय इत्यसत् । स्वार्थेकदेशनिर्णीतलक्षणो हि नयः स्मृतः ।। (त. श्लोक वा. अ-१।६ सू.)
घट - पट - वृक्ष आदि अर्थ जिस ज्ञान से निश्चित होते हैं वह ज्ञान प्रमाण है। परन्तु नय वस्तु के निर्णय का साधन नहीं है। वस्तु का प्रकाशक न होने के कारण नय को अवस्तु का प्रकाशक नहीं समझ लेना चाहिये । जिस ज्ञान में वस्तु का पारमार्थिक स्वरूप नहीं प्रकाशित होता, वह ज्ञान मिथ्या ज्ञान होता है । जब शुक्ति देखने पर रजत के रूप में प्रतीत होती है तब रजत ज्ञान मिथ्याज्ञान होता है। वह प्रमाणभूत नहीं होता। वस्तु के एक देश का प्रशासक होने के कारण नय को शुक्ति में रजत ज्ञान के समान मिथ्याज्ञान नहीं मानना चाहिये । शुक्ति में जो रजत प्रतीत होता है, वह वस्तु नहीं है - न होने पर भी प्रतीत हो रहा है इसलिये अवस्तु है। परन्तु वस्तु के जिस एक देश को नय प्रकाशित करता है, वह सत्यरूप में विद्यमान है । इसलिए नय मिथ्या ज्ञान नहीं हो सकता और इस कारण वह अप्रमाण भी नहीं हो सकता । परन्तु वस्तु का एक देश नय के द्वारा प्रकाशित होता है इसलिये प्रमाण भी नहीं हो सकता । भट्ट अकलंकदेव कहते हैं - वस्तु का एक देश न वस्तु है, न अवस्तु, वह वस्तु का अंश है। समुद्र का अंश न समुद्र होता है, न असमुद्र होता है अर्थात् समुद्र से भिन्न नहीं होता। यदि समुद्र का अंश समुद्र हो तो अंश से भिन्न अवशिष्ट भाग समुद्र भिन्न हो जाना चाहिये । यदि समुद्र का एक अंश पूर्ण समुद्र के रूप में मान लिया जाय तो समुद्र के जो शेष अंश बचे होंगे उनको समुद्र नहीं माना जा सकेगा। वे जल के समूह कहे जायेंगे। उनको समुद्र नाम नहीं दिया जा सकेगा। नदियाँ जल का समूह हैं पर वे समुद्र नहीं है। नदियों के समान समुद्र के बचे हुए भागों को समुद्र से भिन्न मानना पडेगा। परन्तु वह बचा हुआ भाग समुद्र है, समुद्र से भिन्न नहीं है।" इसके अतिरिक्त समुद्र के एक