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________________ स्याद्वाद-एक अनुचिन्तन 199 के साथ शेष गौण धर्मों का सूचक स्यात् शब्द समस्त वाक्यों के साथ गुप्तरूप से सम्बद्ध रहता है। उसका प्रयोग किये विना भी उसकी प्रतीति श्रोता को हो जाती है यदि प्रयोजक कुशल' हो तो। इसी से भगवान महावीर का उपदेश जो श्रुत के नाम से ख्यात है उसे प्राचार्य समन्तभद्रने 'स्याद्वाद' शब्द से अभिहित किया है क्योंकि वह स्याद्वाद रूप है उसके बिना पूर्ण ज्ञान के द्वारा जाने गये पूर्ण सत्य का प्रकाशन संभव नहीं है। स्थाद्वाद के प्रस्थापन का श्रेय मुख्य रूप से प्राचार्य समन्तभद्र और आचार्य सिद्धसेन को प्राप्त है। प्राचार्य समन्तभद्र ने अपने आप्तमीमांसा प्रकरण में भगवान महावीर की प्राप्तता की मीमांसा करते हुए सदेकान्त, असदेकान्त, अवक्तव्यकान्त, नित्यकान्त अनित्यकान्त, भेदैकान्त, अभेदैकान्त, अद्वैतकान्त, द्वैतकान्त, हेतुएकान्त, आगमैकान्त देवकान्त, पौरुषकान्त आदि लोक में प्रचलित एकान्तवादों की समीक्षा करके अनेकान्त वाद की स्थापना की है। और अन्त में तत्वज्ञान कोप्रमाण सिद्ध करते हुए उसे स्याद्वादनय संस्कृत बतलाया है । उसकी व्याख्या करते हुए अकलंक देव ने कहा है कि जैसे केवल ज्ञान समस्त जगत् के पदार्थों को एक साथ ग्रहण करता है उस तरह कोई वाक्य वस्तु के सब धर्मों को नहीं कहता । इसलिये उसका सूचक स्यात् पद प्रत्येक वाक्य के साथ सम्बद्ध रहता है। क्यों कि वचन की प्रवृत्ति क्रम से होती है इसलिए उससे होनेवाला ज्ञान भी क्रमभावी। होता है। आगे आचार्य समन्तभद्र ने स्याद्वाद को सप्तभंग और नय-सापेक्ष कहा है - - स्याद्वाद की ही देन सप्तभंगीवाद और नयवाद है। प्राचार्य समन्तभद्रने सत्प भंगीवाद को लेकर स्याद्वाद या अनेकान्तवाद का विवेचन किया है और सिद्धसेन ने नयवाद के द्वारा अनेकान्तवाद का विवेचन किया है । नयवाद में विविध दर्शनों के एकांगी विचारों को संगृहीत करके उन्हें प्रांशिकसत्य के रूप में स्वीकार किया गया है भोर सप्तभंगीवाद में एक ही वस्तु के विषय में प्रचलित विरोधी विचारों या कथनों को संगृहीत किया गया है । नयवाद में सब दर्शन संगृहीत हैं और दूसरे में दर्शनों के मांशिक मन्तव्य समन्वित है। सप्तभंगीवाद स्यादस्ति, स्यात् नास्ति, स्यादस्तिनास्ति, स्यादवक्तव्य, स्यादस्ति प्रवक्तव्य, स्यान्नास्ति प्रवक्तव्य, स्यादस्ति-नास्ति-प्रवक्तव्य है ये सात भंग है । इनके समूह को सप्तभंगी कहते हैं। इन सात का मूल विधि और निषेध है इसलिये इसे विधिनिषेध मूलक पद्धति भी कहा है । सप्तभंगी का लक्षण है - 'प्रश्नवशादेकन वस्तुनि अविरोधेन विधि प्रतिषेध कल्पना सप्तभंगी।'११ प्रश्नवश एकवस्तु में विरोध का परिहार करते हुए जो विधि और निषेध का कथन है वह सप्तभंगी है। इतर दर्शनों में यद्यपि अनेक विचार मनेकान्तवाद के समर्थक मिलते हैं और इसीलिये सत् असत् उभय और अनिर्वचनीय भंगो का संकेत देखा जाता है, फिर भी
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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