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________________ 198 STUDIES IN JAINISM शब्द की इस असामर्थ्य के सिवाय एक कठिनाई और भी है कि एक ही वस्तु के विषय में विभिन्न ज्ञाताओं के विभिन्न अभिप्राय होते है । और वे ज्ञाता अपने अपने अभिप्राय के अनुसार उस वस्तु को कहते हैं । तथा अपने अपने अभिप्राय को ही यथार्थ मानकर झगड़ते है । इसके विषय में कुछ जन्मान्ध मनुष्यों और एक हाथी का उदाहरण दिया जाता है । कुछ जन्मान्ध मनुष्य अपने अपने स्पर्शज्ञान के द्वारा हाथी के एक एक अवयव को हाथी मानकर झगड़ने लगे तब किसी दृष्टि संपन्न मनुष्य ने उनके झगड़े को शान्त किया कि तुम लोगों ने हाथी के एक एक अवयव को ही जानकर उसे ही पूर्ण हाथी समझ लिया है। तुम सबका कथन प्रांशिक सत्य है पूर्णसत्य नहीं है। अतः एक ही वस्तु के प्रांशिक सत्ता को न तो पूर्णसत्य ही कहा जा सकता है और न सर्वथा असत्य ही कहा जा सकता है। इन सब कठिनाईयों को दूर करने के लिये स्याद्वाद का आविष्कार हुआ । यद्यपि अनेकान्तवाद और स्याद्वाद यह एकार्थक माने जाते हैं किन्तु उनमें अन्तर है । अनेकान्त वस्तुपरक है और स्याद्वाद वचनपरक है । अनेकान्तवाद का कथन स्याद्वाद के द्वारा ही सम्भव है । स्याद्वाद 'स्याद्वाद' शब्द स्यात् और वाद इन दो शब्दों के मेल से निष्पन्न हुआ है । 'वदनं वाद : ' के अनुसार वाद का अर्थ तो कथन है । 'स्यात्' पूर्वक कथन स्याद्वाद है । अतः स्याद्वाद का मुख्य अंश 'स्यात्' शब्द है । विधि आदि अर्थो में भी लिलकार में स्यात् क्रियारूप पद सिद्ध होता है । किन्तु स्याद्वाद में 'स्यात्' पद क्रियारूप पद नहीं है। किन्तु वह निपात रूप है । निपातरूप स्यात् शब्द के भी संशय आदि अनेक अर्थ हैं । किन्तु यहां स्यात् शब्द का अर्थ अनेकान्त है । स्यात् शब्द अनेकान्त का द्योतक है । श्रनेकान्त का लक्षण प्रकलंकदेव ने अपनी अष्टशती में इन प्रकार किया है - 'सदसन्नित्यानित्यादि सर्वथैकान्त प्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकान्तः । '७ अर्थात् सर्वथा सत्, सर्वथा असत् सर्वथा नित्य, सर्वथा अनित्य आदि सर्वथा एकान्तों का प्रतिक्षेप करने वाला अनेकान्त है । अत: अनेकान्त का द्योतक अथवा वाचक स्यात् शब्द का प्रयोग जिस वाक्य के साथ यह प्रयुक्त हुआ है उसके अर्थतत्त्व को जैसे पूर्णरूप से सूचित करता है । जैसे ज्ञान पूर्णवस्तु को एक साथ ग्रहण करता है उस तरह से कोई वाक्य पूर्णवस्तु को एक साथ नहीं कहता। इसलिये उसके अभिधेयविशेष रूप का सूचक स्यात् शब्द का प्रयोग किया जाता है। उसके बिना अनेकान्त रूप अर्थ की प्रतिपत्ति नहीं हो सकती । 'कथंचित्' इत्यादि शब्द से भी अनेकान्त रूप अर्थ की प्रतिपत्ति होती है क्योंकि वह भी स्याद्वाद के पर्याय रूप है । सारांश यह है कि शब्द की प्रवृत्ति वक्ता के अधीन है। और वक्ता वस्तु के अनेक धर्मों में से किसी एक धर्म की मुख्यता से वचन प्रयोग करता है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि उस वस्तु में केवल ही एक धर्म है, अतः विवक्षित धर्म की मुख्यता
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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