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________________ स्माद्वाद - एक अनुचिन्तन 197 प्रतिनियत असाधारण स्वरूप न हो तो उसे वस्तु नहीं माना जा सकता । प्रत्येक द्रव्य अपना असाधारण स्वरूप रखता है। और ऐसा तभी सम्भव होता है जब द्रव्य अपने से भिन्न अन्य द्रव्यों के स्वरूप को स्वीकार नहीं करता । अतः प्रत्येक द्रव्य स्वरूप से सत् होने के साथ पररूप से असत् भी होता है। यदि वह स्वरूप की तरह पररूप से भी सत् हो तो उसमें और अन्य द्रव्यों में कोई भेद नहीं रहेगा और उसके सर्व द्रव्यरूप होने का प्रसंग उपस्थित होगा । तथा यदि पररूप की तरह स्वरूप से भी वह असत् हो तो उसके तुच्छाभावरूप होने का प्रसंग आता है । अतः प्रत्येक पदार्थ को स्वरूप से सत् और पररूप से असत् मानना ही होता है । यतः प्रत्येक पदार्थ सदसदात्मक है । 7 इस तरह प्रत्येक पदार्थ नित्यानित्यात्मक एकानेकात्मक, भेदाभेदात्मक भावाभावात्मक या सदसदात्मक है । नित्य श्रनित्य, एक अनेक, भेद अभेद, भाव अभाव, सत् असत् ये सब परस्पर में विरुद्ध धर्म प्रतीत होते हैं । किन्तु अपेक्षा भेद से एक ही वस्तु में रहते हैं । अत: जैनदृष्टि से प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक है । अनेकान्त में अन्त शब्द का अर्थ धर्म है । अतः श्रनेकान्तात्मक का अर्थ होता है अनेक धर्मात्मक | किन्तु पदार्थ को अनेक धर्मात्मक तो सभी मानते हैं । एक द्रव्य में केवल एक ही धर्म रहता है ऐसा तो कोई नहीं मानता । अतः यहाँ धर्म से परस्पर में विरुद्ध प्रतीत होनेवाले धर्म ही लिये गये हैं । इसी से जैन दर्शन अनेकान्तवादी दर्शन कहा जाता है । यहाँ एक शंका हो सकती है कि वस्तु को जो पर की अपेक्षा असत् कहा गया है यह तो उसका स्वाभाविक धर्म नहीं है आरोपित धर्म है । किन्तु ऐसी शंका उचित नहीं है क्योंकि सत् की तरह असत् भी वस्तु का स्वभावसिद्ध धर्म है । केवल व्यवहार उसका परकी अपेक्षा किया जाता है किन्तु इससे उसे आरोपित नहीं कहा जा सकता । इसी तरह प्रत्येक पदार्थ में अनन्त धर्म स्वरूपसिद्ध हैं । केवल उसका व्यवहार परकी अपेक्षा किया जाता है । इस प्रकार वस्तु अनेकधर्मात्मक है और वे धर्म ऐसे हैं जो परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं । ऐसी वस्तु को अखण्ड रूप से ज्ञान के द्वारा जाना जा सकता है किन्तु शब्द के द्वारा कहा नहीं जा सकता । सत् कहने से केवल सत् धर्म का ही बोध होता है । और असत् कहने से केवल असत् का ही बोध होता है । कोई ऐसा शब्द नहीं है जो वस्तु के पूर्ण रूप को स्पर्श करता हो । ग्राप कह सकते हैं कि अनेकान्त कहने पूर्ण वस्तु रूप का ग्रहण होता है । किन्तु यह भी यथार्थ नहीं है। क्योंकि जैसे सत् का प्रतिपक्षी धर्मं असत् है वैसे ही अनेकान्त का प्रतिपक्षी धर्म एकान्त है । अतः जैसे सत् के विना असत् नहीं और असत् के विना सत् नहीं, वैसे ही एकान्त के बिना अनेकान्त नहीं । एक एक मिलकर ही तो अनेक होते हैं। एक के विना अनेक संभव नहीं । अतः जब सब अनेकान्तात्मक हैं तो अनेकान्त भी अनेकात्मात्मक है और वह एकान्त के विना संभव नहीं है । अतः अनेकान्त शब्द से भी काम नहीं चलता । S
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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