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________________ 196 STUDIES IN JAINIEM द्रव्य और पर्याय एक ही वस्तु है, प्रतिभासभेद होने पर भी अभेद होने से। तथा दोनों का स्वभाव, परिणाम, संज्ञा, संख्या और प्रयोजन आदि भिन्न होने से दोनों में भेद है सर्वथा नहीं। यथा- द्रव्य अनादि अनन्त तथा एक होता है। पर्याय सादिसान्त तथा अनेक होती है । द्रव्य शक्तिमान् है पर्याय उसकी शक्तियां है । द्रव्य की संज्ञा द्रव्य है और पर्याय की पर्याय । द्रव्य की संख्या एक है पर्याय की अनेक । द्रव्य त्रिकालवर्ती है पर्याय वर्तमानकालवर्ती है। इसी से दोनों के लक्षण भी भिन्न है। इस तरह द्रव्य और पर्याय में कयंचित् भेद और कथंचित् अभेद होने से वस्तु भेदाभेदात्मक है। तथा वस्तु भावरूप भी है और अभावरूप भी है । यदि वस्तु को सर्वचा भावरूप माना जाता है अर्थात् द्रव्य की तरह पर्याय को भी सर्वथा भावरूप स्वीकार किया जाता है तो प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, इतरेतराभाव और अत्यन्ताभाव का लोप होने से पर्याय भी अनादि अनन्त और सर्वसंकररूप हो जायेगी और एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप हो जायेगा । ___ कार्य की उत्पत्ति से पहले जो उसका अभाव होता है उसे प्रागभाव कहते हैं। द्रव्य तो उत्पन्न होता नहीं । उत्पन्न होती है पर्याय । उत्पत्ति से पहले उसका प्रागभाव होता है । यह प्रागभाव पूर्वपर्यायरूप होता है । यदि इसे नहीं माना जाता तो कार्यपर्याय अनादि हो जायेगी क्योंकि कार्य की उत्पत्ति से पहले उसका अभाव न मानने से वह कार्य उत्पत्ति से पहले भी वर्तमान कहलायेगा; क्योंकि उसका अभाव अमान्य है । कार्य की उत्पत्ति के पश्चात् जो उसका अभाव होता है उसे प्रध्वंसाभाव कहते हैं। यदि उसे न माना जाय तो सभी पर्यायें अनन्त हो जायेगी । एक पर्याय का दूसरी पर्याय में जो अभाव होता है वह इतरेतराभाव है । जैसे घट पर्याय का पट में और पट पर्याय का घट में अभाव है। यदि इसे नहीं माना जाता तो कोई भी पर्याय प्रतिनियत न रहकर सर्वात्मक हो जायेगी । एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में अभाव अत्यन्ताभाव है । इसको न मानने पर किसी भी द्रव्य का अपने असाधारण स्वरूप में सद्भाव नहीं रह सकेगा। सब द्रव्य सब रूप हो जायेंगे। इस प्रकार ये चार अभाव, जो भाव रूप ही हैं, वस्तु के धर्म हैं। इनको न मानने पर उक्त दूषण आते हैं । अतः भाव की तरह अभाव भी वस्तु का धर्म है अतः वस्तु न केवल भावात्मक है और न केवल अभावात्मक है किन्तु भावाभावात्मक है। प्रत्येक वस्तु का वस्तुत्व दो मुद्दों पर निर्भर है- स्वरूप का उपादान और पररूप का अपोहन । अकलंकदेव ने कहा है - 'स्वपररूपोपादानापोहत्वं हि वस्तुनो वस्तुत्वम्'५ । वस्तु का वस्तुत्व स्वरूप का उपादान और पररूप का अपोहन है। इसका मतलब है कि प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूप में ही रहती है, पररूप में नहीं । यदि वस्तु का अपना कोई
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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