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________________ 200 STUDIES IN JAINISM उक्त सात भंगों का क्रमिक विवेचन या उल्लेख अन्यत्र नहीं मिलता । बौद्धदर्शन में तो चतुष्कोटि के नाम से सत् असत् उभय अनुमय का उल्लेख मिलता है । माध्यमिक दर्शन का प्रतिष्ठापक आर्य नागार्जुन तो उक्त चतुष्कोटि से शून्य तत्व की व्यवस्था करता है।१२ जैन आगमिक पद्धति में भी वचनयोग के चार भेद किये हैं-सत्य (सत्) असत्य (असत्) उभय और अनुभय । जैन आगमों में और बौद्धदर्शन में जिसे अनुभय कहा है जैन दार्शनिक पद्धति में उसे ही प्रवक्तव्य या अवाच्य कहा है । अतः सप्तभंगी के मूल ये चार भंग ही है शेष तीन भंग जो चार भंगों के मेल से निष्पन्न किये गये हैं जैन दार्शनिकों की देन है। इन सातों के संयोग से निष्पन्न भंगों में से कुछ उन्हीं में गभित हो जाते हैं और कुछ पुनरुक्त होते हैं । विधिकल्पना ही यथार्थ है अत: एक ही वाक्य पर्याप्त है ऐसी मान्यता ठीक नहीं है क्योंकि प्रतिषेध कल्पना भी यथार्थ है। प्रतिषेध कल्पनाही यथार्थ है ऐसा मन्तव्य भी ठीक नहीं है क्योंकि अभावकान्त का निराकरण किया गया है । सत् का कथन करने के लिये विधिवाक्य और असत् का कथन करने के लिये प्रतिषेध वाक्य, इस तरह दो ही वाक्य पर्याप्त है ऐसा मन्तव्य भी ठीक नहीं है। जिसके सत् और असत् दोनों धर्म प्रधान रूप से कहे जाते हैं उस वस्तु से जिसके एक एक ही धर्म प्रधानभूत विवक्षित है वह वस्तु भिन्न होती है। केवल सत्त्ववचन से, या केवल प्रसत्त्ववचन से क्रमार्पित सत्त्व-असत्त्व का कथन नहीं किया जा सकता, तब सत्, असत्, उभयरूप तीन ही वचन पर्याप्त है ऐसा मन्तव्य भी ठीक नहीं है क्योंकि एक साथ सत् असत् को कहने रूप जो प्रवक्तव्य का विषय है वह भी एक वाक्य है । इसीतरह इनके मेल से निष्पन्न सात ही वाक्य हैं। समन्तभद्र ने इन में से प्रादि के चार भंगों की व्यवस्था करते हुए कहा है-सर्व (चेतन, अचेतन, द्रव्य, पर्याय आदि) स्वरूपादिचतुष्टय से सत् कौन स्वीकार नहीं करता और पर रूपादि चतुष्टय से असत् कौन स्वीकार नहीं करता। यदि ऐसा स्वीकार नहीं किया जाता तो इष्ट तत्त्व की व्यवस्था नहीं हो सकती। तथा क्रम से अर्पित स्वरूप और पदरूपादिचतुष्टय से वस्तु उभय रूप है । और साथ स्वपदरूपादिचतुष्टय से कहना शक्य न होने से प्रवक्तव्य या अवाच्य है इस प्रकार उन्होंने चार ही भंगों की व्यवस्था करके शेष तीन भंगों को उक्तक्रम से व्यवस्थित करने का संकेत किया है। समन्तभद्र के व्याख्याकार अकलंक और विद्यानन्द के अनुसार सांख्य सदेकान्तवादी, माध्यमिक असदेकान्तवादी, वैशेषिक सर्वथा उभयवादी और बौद्ध अवाच्यकान्तवादी हैं । तथा शंकर का अनिर्वचनीयवाद सदवक्तव्य, बौद्धों का अन्यापोहवाद प्रसद
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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