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________________ 180 STUDIES IN JAINISH सप्तभंगी सप्तभंगी स्याहाद की भाषायी अभिव्यक्ति के सामान्य विकल्पों को प्रस्तुत करती है। हमारी भाषा विधि-निषेध की सीमाओं से घिरी हुई है । “है" और "नहीं है" हमारे कथनों के दो प्रारूप है। किन्तु कभी कभी हम अपनी बात को स्पष्टतया "है" (विधि) और “नहीं है" (निषेध) भाषा में प्रस्तुत करने में असमर्थ होते हैं अथवा सीमित शब्दावली की यह भाषा हमारी अनुभूति को प्रकट करने से असमर्थ होती है। ऐसी स्थिति में हमें एक तीसरे विकल्प "अवाच्य" या "अवक्तव्य' का सहारा लेते हैं। अर्थात् शब्दों के माध्यम से अथवा "है" और "नहीं है" की भाषायी सीमा में बांध कर उसे कहा नहीं जा सकता है । इस प्रकार विधि, निषेध और अवक्तव्यता से जो सात प्रकार का वचन-विन्यास बनता है, उसे सप्तभंगी कहा जाता है। २३ सप्तभंगी में स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति और स्यात् अवक्तव्य ये तीन असंयोगी मौलिक भंग है। शेष चार भंग इन तीनों के संयोग से बनते हैं। उनमें स्यात-अस्ति-नास्ति, स्यात् अस्ति अवक्तव्य और स्यात् नास्ति अवक्तव्य ये तीन द्विसंयोगी और अन्तिम स्यात-अस्तिनास्ति-अवक्तव्य यह त्रिसंयोगी भंग है । निर्णयों की भाषायी अभिव्यक्ति विधि निषेध और अवक्तव्य इन तीन ही रूप में एक होती है । अतः उससे तीन ही मौलिक भंग बनते हैं.और इन तीन मौलिक भंगों से गणित शास्त्र के संयोग नियम (law of combination) के आधार पर सात ही भंग ही बनते हैं, न कम न अधिक । अष्टसहस्त्री टीका में आचार्य विद्यानन्दी ने इसीलिए यह कहा है कि जिज्ञासा और मंशय और उनके समाधान सप्त प्रकार के ही हो सकते हैं । अत: जैन आचार्यो की सप्तभंगी की यह व्यवस्था निर्मूल नहीं है। वस्तुतत्त्व के अनन्त धर्मों में से प्रत्येक को देकर एक सप्तभंगी और इस प्रकार अनन्त सप्तभंगियां तो बनाई जा सकती है किन्तु अनन्त भंगी नहीं। श्वे. आगम भगवती सूत्र में षट् प्रदेशी र कन्ध के सम्बन्ध में जो २३ भंगों की योजना है वह वचन भेद कृत संस्थाओं के कारण है । उसमें भी मूल भंग सात ही हैं । २४ पंचास्तिकाय सार, प्रवचनसार आदि प्राचीन दिगम्बर आगम ग्रन्थों में और शेप परवर्ती साहित्य में सप्त भंग ही मान्य रहे हैं । अत: विद्वानों को इन भ्रमों का निवारण कर लेना चाहिए कि ऐसे संयोगों मे सप्तभंगी ही क्यों अनन्त भंगी भी हो सकती है अथवा आगमों में सात भंग नहीं है। सप्तभंगी भी एक परवर्ती विकास है। _____ सप्तभंगी का प्रत्येक भंग एक सापेक्षिक निर्णय प्रस्तुत करता है। सप्तभंगी में स्यात् अस्ति आदि जो सात भंग हैं, वे कथन के तार्किक आकार (logical forms) मात्र है। उसमें स्यात् शब्द कथन की सापेक्षिकता का सूचक है और अस्ति एवं नास्ति कथन के विधानात्मक (Affirmative) और निषेधात्मक (Negative) होने के सूचक हैं। कुछ जैन विद्वान् अस्ति को सत्ता की भावनात्मकता का और नास्ति को अभावात्मकता का सूचक मानते हैं। किन्तु यह दृष्टिकोण जैन दर्शन को मान्य नहीं
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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