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________________ स्याद्वाद : एक चिन्तन 181 हो सकता- उदाहरण के लिए जैन दर्शन में आत्मा भावरूप है। वह अभाव रूप नहीं हो सकता है । अतः हमें यह स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिए, कि स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति अपने आपमें कोई कथन नहीं है अपितु कथन के तार्किक आकार हैं, वे कथन के प्रारूप हैं। उन प्रारूपों को तार्किक कथन का रूप देने के लिए अपेक्षा तथा उद्देश्य और विधेय पदों का उल्लेख आवश्यक है । जैसे स्यात् अस्ति भंग का उदाहरण होगा-द्रव्य की अपेक्षा आत्मा नित्य है। यदि हम इसमें अपेक्षा (द्रव्यता) और विधेय (नित्यता) का उल्लेख नहीं करें और कहें कि स्यात् आत्मा है तो हमारा कयन भ्रम पूर्ण होगा । अपेक्षा और विधेय पद के उल्लेख के अभाव में सप्तभंगी के आधार पर किये गये कथन अनेक भ्रान्तियों को जन्म देते हैं, जिसका विशेष विवेचन हमने द्वितीय भंग की चर्चा के प्रसंग में किया है । आधुनिक तर्कशास्त्र की दृष्टि से सप्तभंगी का प्रत्येक भंग एक सापेक्षिक कथन है जिसे एक हेतुफलाश्रित वाक्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है । सप्तभंगी के प्रसंग में उत्पन्न भ्रान्तियों से बचने के लिए उसे निम्न सांकेतिक रूप में व्यक्त किया जा सकता है। सप्तभंगी के इस सांकेतिक प्रारूप के निर्माण में हमने चिहनों का प्रयोग उनके सामने दर्शित अर्थों में किया है - चिह न अर्थ यदि...तो (हेतुफलाश्रित कथन) अपेक्षा संयोजन (और) युगपद् (एक साथ) अनन्तता निषेध उद्देश्य विधेय U 3 4 and भंगों के आगमिक रूप भंगों के सांकेतिक रूप ठोस उदाहरण स्यात अस्ति अ उ वि है यदि द्रव्य की अपेक्षा से कथन करते हैं तो आत्मा नित्य है। स्यात् नास्ति अ उ वि नहीं यदि पर्याय की अपेक्षा से कथन करते है तो आत्मा नित्य नहीं है। स्यात अस्ति नास्तिच (अ१० उ वि है यदि द्रव्य की अपेक्षा से कथन करते अ२ उ वि नहीं है हैं तो आत्मा नित्य है और यदि पर्याय
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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