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________________ स्थाद्वाद : एक चिन्तन 179 के निराकरण का अच्छा अवसर मिलता है, इस विचार-दृष्टि और सहिष्णु भावना में ही प्रजातन्त्र का भविष्य उज्ज्वल रह सकता है । राजनैतिक क्षेत्र में संसदीय प्रजातन्त्र (पार्लियामेन्टरी डेमोक्रेसी) वस्तुतः राजनैतिक स्याद्वाद है । इस परम्परा में बहुमत दल द्वारा गठित सरकार अल्प मत दल को अपनी विचार प्रस्तुत करने का अधिकार मान्य करती है और यथा सम्भव उससे लाभ भी उठाती है । दार्शनिक क्षेत्र में जहां भारत स्याद्वाद का सर्जक है, वहीं वह राजनैतिक क्षेत्र में संसदीय प्रजातन्त्र का समर्थक भी है। अतः आज स्याद्वाद सिद्धान्त को व्यावहारिक क्षेत्र में उपयोग करने का दायित्व भारतीय राजनीतिज्ञों पर है। पारिवारिक जीवन में स्याद्वाददृष्टि का उपयोग कौटुंबिक क्षेत्र में इस पद्धति का उपयोग परस्पर कुटुम्बों में और कुटुम्ब के सदस्यों में संघर्ष को टालकर शान्तिपूर्ण वातावरण का निर्माण करेगा। सामान्यतया पारिवारिक जीवन में संघर्ष के दो केन्द्र होते हैं - पिता-पुत्र तथा सास-बहू । इन दोनों विवादों में मूल कारण दोनों का दृष्टिभेद है । पिता जिस परिवेश में बड़ा हुआ, उन्हीं संस्कारों के आधार पर पुत्र का जीवन ढालना चाहता है । जिस मान्यता को स्वयं मानकर बैठा है, उन्हीं मान्यताओं को दूसरे से मनवाना चाहता है । पिता की दृष्टि अनुभव प्रधान होती है, जबकि पुत्र की दृष्टि तर्कप्रधान । एक प्राचीन संस्कारों से ग्रसित होता है तो दूसरा उन्हें समाप्त कर देना चाहता है । यही स्थिति सास-बहू में होती है । सास यह अपेक्षा करती है कि बहू ऐसा जीवन जिये जैसा उसने स्वयं बहू के रूप में किया था, अबकि बह अपने युग के अनुरूप और अपने मातृ पक्ष के संस्कारों से प्रभावित जीवन जीना चाहती है । मात्र इतना ही नहीं, उसकी अपेक्षा यह भी होती है कि वह उतना ही स्वतंत्र जीवन जीये, जैसा वह अपने माता-पिता के पास जीती थी। इसके विपरीत श्वशुर पक्ष उससे एक अनुशासित जीवन की अपेक्षा करता है । यही सब विवाद के कारण बनते हैं। इसमें जब तक सहिष्णु दृष्टि और दूसरे की स्थिति को समझने का प्रयास नहीं किया जाता, तब तक संघर्ष समाप्त नहीं हो सकता । वस्तुतः इसके मूल में जो दृष्टि- भेद है, उसे अनेकान्त पद्धति से ही सम्यक् प्रकार जाना जा सकता है। वास्तविकता तो यह है कि हम जब दूसरे के सम्बन्ध में कोई विचार करें, कोई निर्णय लें तो हमें स्वयं अपने को उस स्थिति में खड़ा कर सोचना चाहिए । दूसरे की भूमिका में स्वयं को खड़ा करके ही उसे सम्यक् प्रकार से जाना जा सकता है। पिता पुत्र से जिस बात की अपेक्षा करता है, उसके पहले अपने को पुत्र की भूमिका में खड़ा कर विचार कर ले । अधिकारी कर्मचारी से जिस ढंग से काम लेना चाहता है, उसके पहले स्वयं को उस स्थिति में खड़ा करे, फिर निर्णय ले । यही एक ऐसी दृष्टि है, जिसके अभाव में लोक-व्यवहार असम्भव है और जिस आधार पर स्याद्वाद या अनेकान्तवाद जगत्गुरु होने का दावा करता है।
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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