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________________ 178 STUDIES IN JAINISM रखता है । वास्तव में माध्यस्थ भाव ही शास्त्रों का गूढ़ रहस्य है, यही धर्मवाद है । माध्यस्थ भाव रहने पर शास्त्र के एक पद का ज्ञान भी सफल है अन्यथा करोड़ों शास्त्रों का ज्ञान भी वृथा है । एक सच्चा स्याद्वादी सभी दर्शनों का आराधक किस प्रकार होता है, इस सम्बन्ध में परमयोगी आनन्दधन जी लिखते हैं : षट् दरसण जिन अंग भणीजे, न्याय षड़ंग जो साधे रे । नमि जिनवरना चरण उपासक, षटदर्शन आराधे रे ॥ १ ॥ जिन सुर पादप पाय बखाणुं, सांख्य जोग दोय भेदे रे । आतम सत्ता विवरण करता, लही दुय अंग अखेदे रे || २ || भेद अभेद सुगत मीमांसक, जिनवर दोय कर भारी दे । लोकालोक अवलंबन भजिये, गुरुगमथी अवधारी रे ।। ३ ।। लोकायतिक कूख जिनवरनी, वंश विचार जो की जे । तत्त्व विचार सुधारस धारा, गुरुगम विण केम पीजे ॥ ४ ॥ जैन जिनेश्वर उत्तम अंग, अंतरंग बहिरंगे रे । अक्षर न्यास धरा आराधक, आराध धरी संगे रे ॥ ५॥ राजनैतिक क्षेत्र में स्याद्वाद का उपयोग आज का राजनैतिक जगत् भी वैचारिक संकुलता से परिपूर्ण है। पूंजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद, फासीवाद, नाजीवाद, आदि अनेक राजनैतिक विचार धाराएं तथा राजतन्त्र, प्रजातन्त्र, कुलतन्त्र, अधिनायक तन्त्र आदि अनेकानेक शासन प्रणालियां वर्तमान में प्रचलित हैं । मात्र इतना ही नहीं उनमें से प्रत्येक एक दूसरे की समाप्ति के लिए प्रयत्नशील है । विश्व के राष्ट्र खेमों में बटे हुए हैं और प्रत्येक खेमे का अग्रणी राष्ट्र अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने के हेतु दूसरे के विनाश में तत्पर है। मुख्य बात यह है कि आज का राजनैतिक संघर्ष आर्थिक हितों का संघर्ष न होकर वैचारिकता का संघर्ष है । आज अमेरिका और रूस अपनी वैचारिक प्रभुसत्ता के प्रभाव को बढ़ाने के लिए ही प्रतिस्पर्धा में लगे हुए हैं। एक दूसरे को नाम शेष करने की उनकी यह महत्वाकांक्षा कहीं मानव जाति को ही नामशेष न कर दे । आज के राजनैतिक जीवन में स्याद्वाद के दो व्यावहारिक फलित वैचारिक सहिष्णुता और समन्वय अत्यन्त उपादेय है । मानव जाति ने राजनैतिक जगत् में राजतन्त्र से प्रजातन्त्र तक की जो लम्बी यात्रा तय की है उसकी सार्थकता स्याद्वाद दृष्टि को अपनाने में ही है । विरोधी पक्ष के द्वारा की जाने वाली आलोचना के प्रति सहिष्णु होकर उसके द्वारा अपने दोषों को समझना और उन्हें दूर करने का प्रयास करना, आज के राजनैतिक जीवन की सबसे बड़ी आवश्यकता है । विपक्ष की धारणाओं में भी सत्ता हो सकती है और सबल विरोधी दल की उपस्थिति से हमें अपने दोषों
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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