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स्याद्वाद : एक चिन्तन
की सलाह दे रहे थे, वहीं महावीर इनके समन्वय की एक ऐसी विधायक दृष्टि प्रस्तुत कर रहे है, जिसका परिणाम स्याद्वाद है ।
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स्याद्वाद विविध दार्शनिक एकान्तवादों में समन्वय करने का प्रयास करता है । उसकी दृष्टि में नित्यवाद - अनित्यवाद, द्वैतवाद - अद्वैतवाद, भेदवाद - अभेदवाद आदि सभी वस्तु स्वरूप के आंशिक पक्षों को स्पष्ट करते हैं। इनमें से कोई भी असत्य तो नहीं है किन्तु पूर्ण सत्य भी नहीं है। यदि इनको कोई असत्य बताता है तो वह आंशिक सत्य को पूर्ण सत्य मान लेने का उनका आग्रह ही है । स्याद्वाद अपेक्षा भेद से इन सभी के बीच समन्वय करने का प्रयास करता है और यह बताता है कि सत्य तभी असत्य बन जाता है, जबकि हम आग्रही दृष्टि से उसे देखते हैं । यदि हमारी दृष्टि अपने को आह के घेरे से ऊपर उठाकर देखे तो ही हमें सत्य के दर्शन हो सकते हैं । सत्य का सच्चा प्रकाश केवल अनाग्रही को ही मिल सकता है। महावीर के प्रथम गौतम का जीवन स्वयं इसका एक प्रत्यक्ष साक्ष्य है । गौतम के केवल ज्ञान में आखिर कौन सा तत्त्व का बाधक बन रहा था। महावीर ने स्वयं इसका समाधान करते हुए गौतम से कहा था हे गौतम तेरा मेरे प्रति जो ममत्व है, यही तेरे केवल ज्ञान (सत्य दर्शन ) का बाधक है । महावीर की स्पष्ट घोषणा थी कि सत्य का सम्पूर्ण दर्शन आग्रह के घेरे में रहकर नहीं किया जा सकता । आग्रह- बुद्धि या दृष्टि-राग सत्य को असत्य वना देता है । सत्य का प्रकटन आग्रह में नहीं, अनाग्रह में होता है, विरोध में नहीं, समन्वय में होता है । सत्य का साधक अनाग्रही और वीतरागी होता है । उपाध्याय यशोविजयजी स्याद्वाद की इसी अनाग्रही एवं समन्वयात्मक दृष्टि को स्पष्ट करते हुए अध्यात्मसार में लिखते है :
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यस्य सर्वत्र समता नयेषु, तनयेष्विव, तस्यानेकान्तवादस्य क्व न्यूनाधिकशेमुषी ।। तेन स्याद्वादमालम्ब्य सर्वदर्शनतुल्यता । मोक्षोदेश विशेषणा यः पश्यति सषां शास्त्रवित् ॥ माध्यस्थ्यमेव शास्त्रार्थो येषां तच्चारु सिद्धयति । स एव धर्मवादः स्यादन्यद्द्बालिशवल्गनम् ॥ माध्यस्थसहितं ह्येकपदज्ञानमपि प्रमा । शास्त्रकोटि : वृथैवान्या तथा चौबल महात्मना ॥
-अध्यात्मसार, ६९-७३.
सच्चा अनेकान्तवादी किसी दर्शन से द्वेष नहीं करता । वह सम्पूर्ण दृष्टिकोण ( दर्शनों) को इस प्रकार वात्सल्य दृष्टि से देखता है जैसे कोई पिता अपने पुत्र को । क्योंकि अनेकान्तवादी की न्यूनाधिक बुद्धि नहीं हो सकती । सच्चा शास्त्रज्ञ कहे जाने का अधिकारी तो वही है, जो स्याद्वाद का आलम्बन लेकर सम्पूर्ण दर्शनों में समान भाव
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