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STUDIES IN JAINISM
उसी भाषा का सहारा लेना होता है, जो कि सीमित एवं अपूर्ण है, "है" और "नहीं है" का सीमा से घिरी हुई है । अत: भाषा पूर्ण सत्य' को अभिव्यक्त नहीं कर सकती है।
प्रथम तो वस्तुतत्त्व के धर्म की संख्या अनन्त है, जबकि मानवीय भाषा की शब्द संभ्या सीमित है। जितने वस्तु-धर्म हैं, उतने शब्द नहीं हैं । अतः अनेक धर्म अनुक्त (अकथित) रहेंगे ही । पुनः मानव की जितनी अनुभतियां है , उन सबके लिए भी भाषा में पृथक्-पृथक् शब्द नहीं है, हम गुड की मिठास को भाषा में पूर्ण रूप से अभिव्यक्त नहीं कर सकते । आचार्य नेमीचन्द्र गोम्मट सार में लिखते है कि हमारे अनुभूत भावों का केवल अनन्तवां भाग ही कथनीय होता है और जितना कथनीय है, उसका भी एक अंश ही भाषा में निबद्ध करके लिखा जाता है (गोम्मट सार, जीव काण्ड ३३४) चाहे निरपेक्ष ज्ञान को सम्भव भी मान लिया जाय, किन्तु निरपेक्ष कथन तो कदापि सम्भव नहीं है, क्योंकि जो कुछ भी कहा जाता है, वह किसी न किसी सन्दर्भ में (in a certain context) कहा जाता है और उस सन्दर्भ में ही उसे ठीक प्रकार से समझा जा सकता है अन्यथा भ्रान्ति होने की सम्भावना रहती है। इसीलिए जैन आचार्यों का कथन है कि जगत् में जो कुछ भी कहा जा सकता है, वह सब किसी विवक्षा या नय से गभित होता है। जिन या सर्वज्ञ की वाणी भी अपेक्षा रहित नहीं होती है । वह सपेक्ष ही होती है । अतः वक्ता के कथन समझने के लिए भी अपेक्षा का विचार आवश्यक है।
पुनश्च जब वस्तुतत्त्व में अनेक विरुद्ध धर्म-युगल भी रहे हुए हैं, तो शब्दों के द्वारा उनका एक साथ प्रतिपादन सम्भव नहीं है। उन्हें ऋमिका रूप में ही कहा जा सकता है । शब्द एक समय में एक ही धर्म को अभिव्यक्त कर सकते हैं । अनन्त धर्मात्मक वस्तुतत्त्व के समस्त धर्मों का एक साथ कथन भाषा की सीमा के बाहर है । अतः किसी भी कथन में वस्तु के अनेक धर्म अनुक्त (अकथित) रह जावेंगे । और एक निरपेक्ष कथन अनुक्त धर्मों का निषेध करने के कारण असत्य हो जावेगा। हमारा कथन सत्य रहे और हमारे वचन-व्यवहार से श्रोता को कोई भ्रान्ति न हो इसलिए सापेक्षिक कथन पद्धति ही समुचित हो सकती है । जैनाचार्यों ने स्यात् को सत्य का चिन्ह १३ इसीलिए कहा है कि वह अपेक्षा पूर्वक कथन करके हमारे कथन को अविरोधी और सत्य बना देता है तथा श्रोता को कोई भान्ति भी नहीं होने देता है। स्याद्वाद और अनेकान्त
साधारणतया अनेकान्त और स्याद्वाद पर्यायवाची माने जाते है। अनेक जैनाचार्यों ने इन्हें पर्यायवाची बताया भी है। किन्तु फिर भी दोनों में थोड़ा अन्तर है। अनेकान्त स्याद्वाद की अपेक्षा अधिक वस्तु-अर्थ का द्योतक है । जैनाचार्यों ने दोनों में व्यापक-व्याप्य भाव माना है । अनेकान्त व्यापक है और स्याद्वाद व्याप्य । अनेकान्त वाच्य है तो स्याद्वाद वाचक । अनेकान्त वस्तुस्वरूप है, तो स्याद्राद उस अनेकान्तिक