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________________ 175 स्याद्वाद : एक चिन्तन वस्तु स्वरूप के कथन की निर्दोष भाषा पद्धति । अनेकान्त दर्शन है, तो स्यादाद उसकी अभिव्यक्ति का ढंग । विभज्जवाद और स्याद्वाद विभज्जवाद स्याद्वाद का ही पर्यायवाची एवं पूर्ववर्ती है। सूत्र कृतांग में महावीर ने निक्षुओं के लिए यह स्पष्ट निर्देश दिया कि वे विभज्जवाद की भाषा का प्रयोग करें।१५ इसी प्रकार भगवान बुद्ध ने भी मज्झिमनिकाय में स्पष्ट रूप से कहा था कि हे माणक्क, मैं विभज्जवादी ई एकान्तवादी नहीं । विभज्जवाद वह सिद्धान्त है जो प्रश्न को विभाजित करके उत्तर देता है । जब बुद्ध से यह पूछा गया कि गृहस्थ आराधक होता है या प्रवजित? उन्होंने इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा कि गृहस्थ एवं त्यागी यदि मिथ्यावादी हैं तो आराधक नहीं हो सकते । किन्तु यदि दोनों ही सम्यक् आचरण करने वाले हैं तो दोनों ही आराधक हो सकते है।१६ इसी प्रकार जब महावीर से जयंति ने यह पूछा कि सोना अच्छा है या जागना । तो उन्होंने कहा था कि कुछ जीवों का सोना अच्छा है और कुछ का जागना । पापी का सोना अच्छा है और धर्मात्माओं का जागना ।१७ इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वक्ता को उसके प्रश्न का विश्लेषणपूर्वक उत्तर देना विभज्जवाद है । प्रश्न-उत्तरों की यह विश्लेषणात्मक शैली विचारों को सुलझाने वाली तथा वस्तु के अनेक आयामों को स्पष्ट करने वाली है। इससे वक्ता का विश्लेषण एकांगी नहीं बनता है। बुद्ध और महावीर का यह विभज्जवाद ही आगे चलकर शून्यवाद और स्याद्वाद में विकसित हुआ है। शून्यवाद और स्याद्वाद भगवान् बुद्ध ने शाश्वतवाद और उच्छेदवाद इन दोनों को अस्वीकार किया और अपने मार्ग को मध्यम मार्ग कहा । जबकि भगवान् महावीर ने शाश्वतवाद व उच्छेदवाद को अपेक्षाकृत से स्वीकृत करके एक विधि मार्ग अपनाया । भगवान बुद्ध की परम्परा में विकसित शून्यवाद और जैन परम्परा में विकसित स्याद्वाद दोनों का ही लक्ष्य एकान्तिक दार्शनिक विचारधाराओं की अस्वीकृति ही था। दोनों में फर्क इतना ही है कि जहाँ शून्यवाद एक निषेधप्रधान दृष्टि है वहीं स्याद्वाद में एक विधायक दृष्टि है। शून्यवाद जो बात संवृति सत्य और परमार्थ सत्य के रूप में कहता है वही बात जैन दार्शनिक व्यवहार और निश्चय नय के आधार पर प्रतिपादित करता है। शून्यवाद और स्याद्वाद में मौलिक भेद अपने निष्कर्षों के सम्बन्ध में है। शून्यवाद अपने निष्कर्षों में है निषेधात्मक और स्याद्वाद विधानात्मक । शून्यवाद अपनी सम्पूर्ण ताकिक विवेचना में इस निष्कर्ष पर आता है कि वस्तुतत्त्व शाश्वत नहीं है, उच्छिन्न नहीं है, एक नहीं है, अनेक नहीं है, सत् नहीं है, असत् नहीं है । जबकि स्याद्वाद अपने निष्कर्षों को विधानात्मक रूप से प्रस्तुत करता है- वह यह कहता है कि वस्तु शाश्वत भी है, नशाश्वत भी है, एक भी है, अनेक भी है, सत् भी है, असत् भी है । एकान्त में रहा
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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