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स्याद्वाद : एक चिन्तन
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सकते हैं, निरपेक्ष सत्य को तो कोई पूर्ण द्रष्टा ही जान सकेगा । १२ और ऐसी स्थिति में जबकि हमारा समस्त ज्ञान आंशिक अपूर्ण तथा सापेक्षिक है, हमें यह दावा करने का कोई अधिकार नहीं है कि मेरी दृष्टि ही एकमात्र सत्य है और सत्य मेरे ही पास है । हमारा आंशिक, अपूर्ण और सापेक्षिक ज्ञान निरपेक्ष सत्यता का दावा नहीं कर सकता है | अतः ऐसे ज्ञान के लिए हमें ऐसी कथन-पद्धति की योजना करनी होगी, जो कि दूसरों के अनुभूत सत्यों का निषेध नहीं करते हुए अपनी बात कह सके ।
क्या सर्वज्ञ का ज्ञान निरपेक्ष होता है ?
यद्यपि जैन दर्शन में यह माना गया है कि सर्वज्ञ या केवली संपूर्ण सत्य का साक्षाकार कर लेता है, अतः यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि क्या सर्वज्ञ का ज्ञान निरपेक्ष है ? इस सन्दर्भ में जैन दार्शनिकों में भी मतभेद पाया जाता है। कुछ समकालीन जैन विचारक सर्वज्ञ के ज्ञान को निरपेक्ष मानते हैं जब कि दूसरे कुछ विचारकों के अनुसार सर्वज्ञ का ज्ञान भी सापेक्ष होता है। श्री दलसुखभाई मालवणिया ने स्याद्वादमंजरी की भूमिका में सर्वश के ज्ञान को निरपेक्ष सत्य बताया है। जबकि मुनि श्री नगराज जी ने जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान नामक पुस्तिका में यह माना है कि सर्वज्ञ का ज्ञान भी कहने भर को ही निरपेक्ष है क्योंकि स्यादस्ति स्थान्नास्ति से परे वह भी नहीं है । वस्तुस्थिति यह है कि जहां तक सर्वज्ञ के वस्तु जगत् के ज्ञान का प्रश्न है, उसे निरपेक्ष नहीं माना जा सकता क्योंकि उसके ज्ञान का विषय अनन्त धर्मात्मक वस्तु है । अत: सर्वज्ञ भी वस्तुतत्व के अनन्त गुणों को अनन्त अपेक्षाओं से ही जान सकता है । वस्तुगत ज्ञान या वैषयिक ज्ञान (objective knowledge ) कभी भी निरपेक्ष नहीं हो सकता, फिर चाहे वह सर्वज्ञ का ही क्यों न हो ? इसीलिए जैन आचार्यों का कथन है कि दीप से लेकर व्योम तक वस्तु मात्र स्याद्वाद की मुद्रा से अंकित है । किन्तु हमें यह ध्यान रखना होगा कि जहां तक सर्वज्ञ के आत्म-बोध का प्रश्न है वह निरपेक्ष हो सकता है क्योंकि वह विकल्परहित होता है । सम्भवत: इसी दृष्टिकोण को लक्ष्य में रखकर आचार्य कुन्दकुन्द को यह कहना पड़ा था कि व्यवहार दृष्टि से सर्वज्ञ सभी द्रव्यों को जानता है किन्तु परमार्थतः तो वह आत्मा को ही जानता है । वस्तुस्थिति यह है कि सर्वज्ञ का स्व-आत्म-बोध तो निरपेक्ष होता है किन्तु वस्तु विषयक ज्ञान सापेक्ष होता है ।
(द) भाषा की अभिव्यक्ति सामर्थ्य की सीमितता और सापेक्षता
सर्वज्ञ या पूर्ण के लिए भी, जो कि संपूर्ण सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, सत्य का निरपेक्ष कथन या अभिव्यक्ति सम्भव है । संपूर्ण सत्य को चाहे जाना जा सकता हो किन्तु कहा नहीं जा सकता । उसकी अभिव्यक्ति का जब भी कोई प्रयास किया जाता है, तो वह सापेक्षिक बन जाता है । क्योंकि सर्वज्ञ को भी अपनी अभिव्यक्ति के लिए