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________________ 172 STUDIES IN JAINISM मात्र इतना ही नहीं, वह इन्द्रिय सापेक्ष होने के साथ ही साथ वह उन कोणों पर भी निर्भर रहता है, जहां से वस्तु देखी जा रही है। और यदि हम उस कोण (स्थिति) के विचार को अपने ज्ञान से अलग करते हैं, तो निश्चित ही हमारा ज्ञान भ्रान्त हो जायगा। उदाहरणार्थ, एक गोल सिक्का अपने अनेक कोणों से हमें वृत्ताकार न लगकर, अण्डाकार दिखाई देता है। विभिन्न गुरुत्वाकर्षणों एवं विभिन्न शारीरिक स्थितियों से एक ही वस्तु हल्की या भारी प्रतीत होती है। हमारी पृथ्वी को जब हम उसके गुरुत्वाकर्षण की सीमा से ऊपर जाकर देखते हैं तो वह गतिशील दिखाई देती है, किन्तु यहां वह हमें स्थिर प्रतीत होती है । दूर से देखने पर वस्तु छोटी और पास से देखने पर बड़ी दिखाई देती है। एक टेबल के जब विविध कोणों से फोटू लिए जाते हैं तो वे परस्पर भिन्न भिन्न होते हैं। इस प्रकार हमारा सारा आनभविक ज्ञान सापेक्ष ही होता है, निरपेक्ष नहीं। इन्द्रिय सम्वेदनों को उन सब अपेक्षाओं (conditions) मे अलग हटकर नहीं समझा जा सकता है, जिनमें कि वे हुए है । अतः ऐन्द्रिय ज्ञान दिक्, काल और व्यक्ति सापेक्ष ही होता है। किन्तु मानव मन कभी भी इन्द्रियानुभूति या प्रतीति के ज्ञान को ही अन्तिम सत्य मानकर सन्तुष्ट नहीं होता, वह उस प्रतीति के पीछे भी झांकना चाहता है। इस हेतु वह अपनी तर्क-बुद्धि का सहारा लेता है। किन्तु क्या तार्किक ज्ञान निरपेक्ष हो सकता है ? प्रथम तो ताकिक ज्ञान भी पूरी तरह से इन्द्रिय सम्वेदनों से निरपेक्ष नहीं होता है, दूसरे तार्किक ज्ञान वस्तुतः एक सम्बन्धात्मक ज्ञान है । बौद्धिक चिन्तन कारण-कार्य, एक-अनेक, अस्ति-नास्ति आदि विचार-विधाओं से घिरा हुआ है । और अपनी इन विचार-विधाओं के आधार पर वह सापेक्ष ही होगा 1 तर्क-बुद्धि जब भी किसी वस्तु के स्वरूप का निश्चय कर कोई निर्णय प्रस्तुत करती है, तो वह हमें दो तथ्यों के बीच किसी सम्बन्ध या असम्बध की ही सूचना प्रदान करती है और ऐसा सम्बन्धात्मक ज्ञान सम्बन्ध-सापेक्ष ही होगा, निरपेक्ष नहीं। (स) मानवीय ज्ञान की सीमितता एवं सापेक्षता वस्तुतः वस्तुतत्व का यथार्थ एवं पूर्ण ज्ञान सीमित क्षमता वाले मानव के लिए सदैव ही एक जटिल प्रश्न रहा है । अपूर्ण के द्वारा पूर्ण को जानने के समस्त प्रयास आंशिक सत्य के ज्ञान से आगे नहीं जा पाये हैं और जब इस आंशिक सत्य को पूर्ण सत्य मान लिया जाता है तो वह सत्य सत्य न रह करके असत्य बन जाता है । वस्तु तत्त्व न केवल उतना ही जितना कि हम इसे जान पा रहे हैं। मनुष्य की ऐद्रिक ज्ञान-क्षमता व तर्कवुद्धि इतनी अपूर्ण है कि वे सम्पूर्ण सत्य को एक साथ ग्रहण नहीं कर सकती । साधारण मानव-बुद्धि पूर्ण सत्य का साक्षात्कार नहीं कर पाती है । जैन दृष्टि के अनुसार सत्य अज्ञेय तो नहीं है किन्तु बिना पूर्णता को प्राप्त किये उसे पूर्ण रूप से नहीं जाना जा सकता। प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन ने कहा था कि “हम केवल सापेक्षिक सत्य को जान
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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