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स्याद्वाद : एक चिन्तन
रूप में रह सकते हैं, जिनका उस वस्तु में अत्यन्ताभाव नहीं है । किन्तु इस बात से वस्तुतत्व का अनन्त धर्मात्मक स्वरूप खण्डित नहीं होता है और वस्तुतस्व में नित्यताअनित्यता, एकत्व - अनेकत्व, अस्तित्व-नास्तित्व, भेदत्व अभेदत्व आदि अनेक विरोधी धर्म-युगलों की युगपत् उपस्थिति मानी जा सकती है। आचार्य अमृतचन्द्र समयसार की टीका में लिखते हैं कि अपेक्षा भेद से जो है, वही नहीं भी है; जो सत् है वह असत् भी है, जो एक है वह अनेक भी है, जो नित्य है वही अनित्य भी है । ९ वस्तुतत्त्व एकान्तिक न होकर अनेकान्तिक है । आचार्य हेमचन्द्र अन्ययोगव्यवच्छेदिका में लिखते हैं कि विश्व की समस्त वस्तुएं स्याद्वाद के मुद्रा से युक्त है, कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकते १० यद्यपि वस्तुतत्त्व का यह अनन्तधर्मात्मक एवं अनेकान्तिक स्वरूप हमें असामंजस्य में अवश्य डाल देता है किन्तु यदि वस्तु-स्वभाव ऐसा ही है, तो हम क्या करें? बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति के शब्दों में 'यदीदं स्वयमर्थेभ्यो रोचते के वयं' या पुनः हम जिस वस्तुतत्त्व या द्रव्य का विवेचन करना चाहते है, वह है क्या ? जहाँ एक ओर द्रव्य को गुण और पर्यायों का आश्रय कहा गया है, वहीं दूसरी ओर उसे गुणों का समूह भी कहा गया है । गुण और पर्यायों से पृथक् द्रव्य की कोई सत्ता ही नहीं है और द्रव्य से पृथक् गुण और पर्यायों की कोई सत्ता नहीं है । यह है वस्तुतत्त्व की सापेक्षितता और यदि वस्तु-तत्व सापेक्षिक अनन्तधर्मात्मक और अनेकान्तिक है, तो फिर उसका ज्ञान एवं उसकी विवेचना निरपेक्ष तथा ऐकान्तिक दृष्टि से कैसे सम्भव है? इसलिए जैन आचार्यों का कथन है कि (अनन्तधर्मात्मक) मिश्रित तत्त्व की विवेचना बिना अपेक्षा के सम्भव नहीं है | ११
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(ब) मानवीय ज्ञान-प्राप्ति के साधनों का स्वरूप
यह तो हुई वस्तु स्वरूप की बात, किन्तु जिस वस्तु स्वरूप का ज्ञान हम प्राप्त करना चाहते हैं, उसके लिए हमारे पास साधन क्या है ? हमें उन साधनों के स्वरूप एवं उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान के स्वरूप पर भी विचार कर लेना होगा । मनुष्य के पास अपनी सत्यामीप्सा और जिज्ञासा की संतुष्टि के लिए ज्ञान प्राप्ति के दो साधन हैं :
१. इन्द्रियां, और २. तर्कबुद्धि ।
मानव अपने इन्हीं सीमित साधनों द्वारा वस्तुतत्त्व को जानने का प्रयत्न करता रहा है। जहां तक मानव के ऐन्द्रिक ज्ञान का प्रश्न है, यह स्पष्ट है कि ऐन्द्रिक ज्ञान न पूर्ण है और न निरपेक्ष | मानव इन्द्रियों की क्षमता सीमित है अतः वे वस्तु-तत्त्व का जो भी स्वरूप जान पाती हैं, वह पूर्ण नहीं हो सकता है । इन्द्रियां वस्तु को अपने पूर्ण स्वरूप में देख पाने के लिए सक्षम नहीं हैं। यहां हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि हम वस्तुतत्त्व को जिस रूप में वह है वैसा नहीं जान कर उसे जिस रूप में इन्द्रियां हमारे समक्ष प्रस्तुत करती हैं, उसी रूप में जानते हैं । हम इन्द्रिय सम्वेदनों को जान पाते हैं, वस्तुतत्त्व को नहीं । इसका अर्थ यह हुआ कि हमारा आनुभविक ज्ञान इन्द्रिय- सापेक्ष है !