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________________ 170 STUDIES IN JAINISM विश्व में सर्वथा विनाश और अभाव से उत्पत्ति जैसी भी कोई स्थिति नहीं है । यद्यपि रोव्यत्व और उत्पत्ति-विनाश के धर्म परस्पर विरोधी है, किन्तु दोनों को सहवर्ती माने बिना विश्व की व्याख्या असम्भव है। यही कारण था कि भगवान महावीर ने अपने युग में प्रचलित शाश्वतवादी और उच्छेदवादी आदि परस्पर विरोधी विचार धाराओं के मध्य समन्वय करते हुए अनेकान्तिक दृष्टि से वस्तुतत्व को उत्पाद, व्यय और घरोव्यात्मक कहकर परिभाषित किया । ५ जिनोपदिष्ट यह त्रिपदी ही, अनेकान्तवादी विचार पद्धति का आधार है । स्याद्वाद और नयवाद सम्बन्धी विपुल साहित्य मात्र इसका विस्तार है । विपदी ही जिन द्वारा वपित वह “वीज" है, जिससे स्याहाद रूपी वर-वृक्ष विकसित हुआ है। वह वस्तुतत्त्व के उस अनेकान्तिक स्वरूप का सूचक है, जिसका स्पष्टीकरण भगवती सूत्र में स्वयं भगवान् महावीर ने विविध प्रसंगों में किया है । उदाहरणार्थ, जब महावीर से गौतम ने यह पूछा कि हे भगवन् । जीव नित्य है या अनित्य है? हे गौतम ! जीव अपेक्षाभेद से नित्य भी है और अनित्य भी। भगवन्, यह कैसे ? हे गौतम - द्रव्य दृष्टि से जीव नित्य है, पर्याय दृष्टि से अनित्य । ६ इसी प्रकार एक अन्य प्रश्न के उत्तर में उन्होंने सोमिल को कहा था कि हे सोमिल - द्रव्य दृष्टि से मैं एक हूँ, किन्तु परिवर्तनशील चेतना अवस्थाओं (पर्यायों) की अपेक्षा से में अनेक भी हूँ। वस्तुतत्त्व के इस अनन्त धर्मात्मक एवं अनेकान्तिक स्वरूप का यह प्रतिपादन उक्त आगम में बहत ही विस्तार के साथ हुआ है, किन्तु लेख की मर्यादा को दृष्टिगत रखते हुए उपरोक्त एक-दो उदाहरण पर्याप्त होंगे। ___ वस्तुतत्त्व की यह अनन्त धर्मात्मकता तथा उसमें विरोधी धर्म-युगलों की एक साथ उपस्थिति अनुभवसिद्ध है। एक ही आम्र फल खट्टा और मधुर (खट्टामीठा) दोनों ही हो सकता है। पितत्व और पूत्रत्व के दो विरोधी गण अपेक्षा भेद से एक ही व्यक्ति में एक ही समय में सत्य सिद्ध हो सकते हैं । वास्तविकता तो यह है कि जिन्हें हम विरोधी धर्म-युगल मान लेते हैं, उनमें सर्वथा या निरपेक्ष रूप से विरोध नहीं है । अपेक्षा-भेद से उनका एक ही वस्तुतत्त्व में एक ही समय में होना सम्भव है । भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से एक ही व्यक्ति छोटा या बड़ा कहा जा सकता है अथवा एक ही वस्तु ठण्डी या गरम कही जा सकती है। जो संखिया जनसाधारण की दृष्टि में विष (प्राणापहारी) है, वही एक वैद्य की दृष्टि में औषधि (जीवन-संजीवनी) भी है। अतः यह एक अनुभवजन्य सत्य है कि वस्तु में अनेक विरोधी धर्म-युगलों उपस्थिति देखी जाती है । यहां हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि वस्तु में अनेक विरोधी धर्म-युगलों की उपस्थिति तो होती है, किन्तु सभी-विरोधी धर्म-युगलों की उपस्थिति नहीं होती है । इस सम्बन्ध में धवला का निम्न कथन द्रष्टव्य है - "यदि (वस्तु में) संपूर्ण धर्मों का एक साथ रहना मान लिया जावे तो परपर विरुद्ध चैतन्य-अचैतन्य, भव्यत्व और अभव्यत्व आदि धर्मों का एक साथ आत्मा में रहने का प्रसंग आ जावेगा ।' अत; यह मानना अधिक तर्क संगत है कि वस्तु में केवल वे ही विरोधी धर्म-युगल युगपत्
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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