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स्याद्वाद : एक चिन्तन
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सापेक्षिक किन्तु निश्चयात्मक ढंग से वस्तुतत्त्व के पूर्ण स्वरूप को अपनी दृष्टि में रखते हुए उसके किसी एक धर्म का मुख्य रूप से प्रतिपादन या निषेध करती है। स्याद्वाद के आधार
सम्भवत: यहां यह प्रश्न उपस्थित किया जा सकता सकता है कि स्याद्वाद या सापेक्षिक कथन पद्धति की क्या आवश्यकता है ? स्याद्वाद या सापेक्षिक कथन पद्धति की आवश्यकता के मूलत: चार कारण है :
१- वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता, २- मानवीय ज्ञान प्राप्ति के साधनों की सीमितता, ३-- मानवीय ज्ञान की अपूर्णता एवं सापेक्षता, तथा ४-- भाषा के अभिव्यक्ती सामर्थ्य की सीमितता एव सापेक्षतता। (अ) वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता :
सर्वप्रथम स्याद्वाद के औचित्य स्थापन के लिए हमें वस्तुतत्त्व के उस स्वरूप को समझ लेना होगा, जिसके प्रतिपादन का हम प्रयास करते हैं। वस्तुतत्त्व मात्र सीमित लक्षणों का पूंज नहीं है, जैन दार्शनिकों ने उसे अनन्त धर्मात्मक कहा है । यदि हम वस्तुतत्त्व के भावात्मक गुणों पर ही विचार करें तो उनकी संख्या भी अनेक होगी। उदाहरणार्थ, गुलाब का फूल गन्ध की दृष्टि से सुगन्धित है, तो वर्ण की दृष्टि से किसी एक या एकाधिक विशिष्ट रंगों से युक्त है, स्पर्श की दृष्टि से उसकी पंखुडियां कोमल हैं, किन्तु डंठल तीक्ष्ण है, उसमें एक विशिष्ट स्वाद है, आदि आदि । यह तो हुई वस्तु भावात्मक धर्मों की बात, किन्तु उसके अभावात्मक धर्मों की संख्या तो उसके भावात्मक धर्मों की अपेक्षा कई गुना अधिक होगी, जैसे गुलाब का फूल, चमेली का, मोगरे का या फ्लास का फूल । वह अपने से इतर सभी वस्तुओं से भिन्न है और उसमें उन सभी वस्तुओं के अनेकानेक धर्मों का अभाव भी है । पुनः यदि हम वस्तुतत्त्व की भूत एवं भावी तथा व्यक्त और अव्यक्त पर्यायी (सम्भावनाओं) पर विचार करें तो उसके गुण-धर्मों की यह संख्या और भी अधिक बढ़कर निश्चित ही अनन्त तक पहुंच ही जावेगी । अतः यह कथन सत्य ही है कि वस्तुतत्त्व अनन्त धर्मो, अनन्त गुणों एवं अनन्त पर्यायों का पुंज है। मात्र इतना ही नहीं वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक होने के साथ साथ अनेकान्तिक भी है, मानव बुद्धि जिन्हें परस्पर विरोधी गुण मान लेती है, वे एक ही वस्तुतत्व में अपेक्षा भेद से एक साथ रहते हुए देखे जाते है । ' अस्तित्व नास्तित्व पूर्वक है और नास्तित्व अस्तित्व पूर्वक है । एकता में अनेकता और अनेकता में एकता. अनुस्यूत है, जो द्रव्य दृष्टि से नित्य है, वही पर्यायवृष्टि से अनित्य भी है । उत्पत्ति के विना विनाश और विनाश के बिना उत्पत्ति नहीं है। पुन: उत्पत्ति और विनाश के लिए प्रीव्यत्व भी अपेक्षित है अन्यथा उत्पत्ति और विनाश किसका होगा? क्योंकि