________________
132
STUDIES IN JAINISM
एक उदाहरण और लीजिए । एक ही पुरुष एकसाथ भिन्न-भिन्न पुरुषों की अपेक्षा पिता, पुत्र, मामा, भानजा, दादा, नाती, बड़ा, छोटा आदि होता है । अथवा उसमें पितृत्व, पुत्रत्व, मातुलस्व, भागिनेयत्व, पितामहत्व, नप्तृत्व, ज्येष्ठत्व, कनिष्ठत्व आदि अनेक धर्म समाये हुए हैं अथवा वह उनका समुदाय है। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु अनेकान्त है। वक्ता जब वचनद्वारा उसे उसके जिस विवक्षित धर्म को लेकर कहता है तो वह उस धर्मवाला ही नहीं है, उसमें उसी समय अन्य धर्म भी विद्यमान हैं, जिनकी वक्ता को उस समय विवक्षा नहीं है और अविवक्षामात्र से उनका अभाव नहीं होता । 'अग्नि दाहक है' कहने पर उसके पाचकता, प्रकाशकता आदि धर्मों का लोप नहीं होता । अपि तु उनकी अविवक्षामान है । देवदत्त को उसका लड़का 'पिताजी' कहकर जब संबोधित करता है, तो देवदस अपने पिता की अपेक्षा पुत्र, भानजे की अपेक्षा मामा आदि मिट नहीं जाता। मात्र उनकी उस समय अविवक्षा है। इतना ही है कि जिसकी विवक्षा होती है वह मुख्य हो जाता है और जिसकी विवक्षा नहीं होती वह गौण हो जाता है । परन्तु इससे वस्तु का अनेकान्तस्वरूप समाप्त नहीं होता । स्याद्वाद इसी तथ्य को सूचित एवं अववोधित करता है। वह यह भी बतलाता है कि जब हर वस्तु अनेकान्तात्मक है - तद् (वह) और अतद् (वह नहीं) इन विरोधी धर्मों को अपने में समाये हुए है, तो कोई वचन भी, चाहे वह विधि परक हो और चाहे निषेधपरक, वस्तु के इस अनेकान्तस्वरूप का लोप नहीं कर सकता । यदि विधिपरक या निषेधपरक वचन क्रमशः केवल विधि या केवल निषेध काही प्रतिपादन करें और विरोधी के अस्तित्व से इन्कार करें तो, विरोधी के अविनाभावी अभिधेय धर्म का भी अभाव हो जायेगा और तब वस्तु में कोई भी धर्म न रहने से वह भी न रहेगी। अतः विधिवचन और प्रतिषेधवचन दोनों प्रकार के वचन अनेकान्त के प्रकाशक है।
इसे यों समझिए, जब हम किसीसे यह कहते हैं कि 'दही लाओ', 'दूध नहीं', तो इन विधायक और प्रतिषेधक दोनों वाक्यों में क्रमशः दही का विधान और दूध का निषेध मख्यतया अभिप्रेत तथा गौण रूप से उनमें क्रमश: दूध का निषेध और दही का विधान भी, जो अविवक्षित है, अवबोधित हैं । इसी तरह हम कहें कि 'भारत भारतीयों का है तो यद्यपि यह विधिवाक्य भारत पर भारतीयों के ही स्वामित्व का विधान करता है, पर साथ में वह गौण रूप से यह भी प्रकाशित करता है कि वह अभारतीयों का नहीं ही है। अन्तर यही है कि वह विधि (स्वामित्व) का प्रकाशन मुख्यतया करता है, क्योंकि वह विवक्षि तहै और प्रतिषेध (अस्वामित्व) का प्रकाशन गौण रूप से, क्योंकि वह अविवक्षित है। और जब हम कहते हैं कि 'भारत किसी विदेशी का नहीं है तो यह निषेधवाक्य यद्यपि भारत पर किसी भी विदेशी के स्वामित्व का निषेध करता है, तथापि साथ में वह यह भी सूचित करता है कि भारत भारतीयों का ही है । इतना ही है कि इसकी सूचना वह गौण रूप से करता है क्योंकि वह अविवक्षित है । और विदेशियों के स्वामित्व का निषेध वह मुख्य रूप से करता है, क्योंकि वह विवक्षित