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________________ स्थाद्वाद-मीमांसा 131 वचन में बनता है और जिसका अर्थ हिन्दी में होना चाहिए' होता है। 'स्यान्मतं' जैसे शब्दों से आरम्भ होनेवाले दार्शनिक पूर्वपक्षीय स्थलों में प्रयुक्त 'स्यात्' शब्द विचार या प्रश्न के अर्थ में आया है। 'स्याद्वाद' पद में आया हुआ 'स्यात्' शब्द निपात (अव्यय) है और वह प्रकरणवश उक्त अर्थों का द्योतक न होकर अनेकान्त' अर्थ का द्योतक है। जैसे 'सैन्धव लाओ' इस वाक्य में प्रयुक्त सैन्धव' शब्द वक्ता के अभिप्रायानुसार भोजन प्रकरण में नमक और यात्रा प्रसङग में घोड़ा अर्थ का बोधक है। आचार्य समन्तभद्र ने स्पष्ट लिखा है कि वक्ता के सभी वाक्यों में उसके अभिप्राय को व्यक्त करनेवाला 'स्यात्' शब्द निपात है और वह अनेकान्तार्थक है। अकलंक और विद्यानन्द ने भी उसे अनेकान्त का सूचक निपात ही बतलाया है । विद्यानन्द ने यह भी कहा है कि निपात द्योतक और वाचक दोनों होते हैं । अतः स्याद्वाद' पद में प्रयुक्त 'स्यात्' शब्द निपात (अव्यय) है और वह अनेकान्त के अर्थ में ग्राह्य है, विधि, विचार, प्रश्न आदि के अर्थ में नहीं । इस 'स्यात्' निपात के द्वारा 'कथंचित्', 'किचित्' 'किसी एक अपेक्षा' 'किसी एक दृष्टि', 'किसी एक धर्मकी विवक्षा' अथवा 'किसी एक ओर' अर्थ का बोध कराया जाता है और अन्ततः वह 'अनेकान्त' में पर्यवसित होता है । 'वाद' का अर्थ सिद्धान्त , मान्यता अथवा कथन है । 'स्यात्'का सिद्धान्त अर्थात् अनेकान्त का सिद्धान्त स्याद्वाद है। अथवा स्यात्' (कथंचित्) का अवलंबन कर वस्तुस्वरूप का कथन करना या मानना स्याद्वाद है। कथंचिद्वाद, अपेक्षावाद, अनेकान्तवाद आदि इसोके पर्याय नाम है । तात्पर्य यह कि स्याद्वाद वक्ता का ऐसा वचन प्रयोग है, जो अभिप्रेत का कथन करता हुआ अन्य अनभिप्रेत धर्मों का, जो वस्तु में विद्यमान हैं, निषेध नहीं करता। किन्तु उनका मौन अस्तित्व स्वीकार करके उन्हें मात्र गौण कर देता है । स्याबाद का प्रयोजन वस्तु का स्वरूप अनेकान्त है । ऐसी कोई वस्तु नहीं, जो अनेक स्वभावों को लिये हुई न हो। उदाहरण के लिए अग्नि को लीजिए। वह दाहक भी है, पाचक भी है और प्रकाशक आदि भी। इस तरह उसमें दाहकता, पाचकता, प्रकाशकता आदि अनेक स्वभाव (धर्म) विद्यमान है । या यों कहिए कि अग्नि उनका समुच्चय है । यह समुच्चय संयोगात्मक न होकर तादात्म्यस्वरूप है। अग्नि की दाहकता उसके पाचकता आदि स्वभावों से न सर्वथा भिन्न है और न सर्वथा अभिन्न । सभी स्वभाव उसमें रूप-रसादि के समान मैत्री भाव से वर्तमान हैं और वे सब उसकी आत्मा (अपना स्वरूप) हैं। उनका यह तादात्म्यसम्बन्ध अविष्वगभावरूप अथवा कथंचित् भिन्नाभिन्न एवं सह-अस्तित्वात्मक है।
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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