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________________ स्याद्वाद -मीमांसा दरबारीलाल कोठिया स्याद्वाद प्रवर्तक स्याद्वाद जैन दर्शन का एक विशिष्ट, प्रमुख एवं मौलिक सिद्धांत है और समस्त जैनागम का बीज है। तीर्थंकरों ने जो उपदेश दिया वह स्याद्वाद - वाणी में दिया । अतएव उन्हें स्याद्वाद का प्रवक्ता तथा उनकी वाणी को स्याद्रादवाणी कहा गया है। आचार्य समस्तभद्र ने श्री शम्भवतीर्थंकर का गुणस्तवन करते हुए उनका 'स्यादवादी' के रूप में उल्लेख किया है । भट्ट अकलङकदेव ने भी श्री ऋषभदेव आदि को लेकर श्री महावीरपर्यन्त सभी (चौबीस) तीर्थंकरों को 'स्याद्वादी' और उनकी वाणी को 'स्याद्वादामृतगर्भ' कहा है। इससे विदित है कि स्याद्वाद तीर्थंकरों की देन है और वे उसके प्रवर्तक हैं । स्याद्वाद का स्वरूप अब विचारणीय है कि यह स्याद्वाद है क्या ? 'स्याद्वाद' संस्कृत-भाषा का एक पद है । प्राकृत में इसे 'सियवाद', 'सियावाद' या 'सियवाय' कहा है। यह दो शब्दों से बना है १ स्यात और २ वाद । 'स्यात्' शब्द का प्रयोग संस्कृत साहित्य' में अनेक अर्थों में मिलता है। कहीं विधि-लिङकी क्रिया में, कहीं विचार में और कहीं प्रश्न आदि में। विधि - font क्रिया का 'स्यात्' शब्द अस् धातु से लिङलकार के प्रथम पुरुष के एक Presented to the Seminar on "Jaina Logic and Philosophy" (Poona University, 1975).
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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