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________________ 110 STUDIES IN JAINISM क्यों कि एक तो उस समय का दार्शनिक वातावरण प्रतिद्वन्द्विता का था। दूसरे, जैन विद्वानों में धर्म और दर्शन के ग्रंथों को रचने की मुख्य प्रवृत्ति थी। बौद्ध विद्वान् शान्तरक्षित (ई. ७ वी, ८ वीं शत) और उनके शिष्य कमलशील (ई. ७ वी, ८ वी, शताद्वी) ने तत्वसंग्रह एवं उसकी टीका में जैन ताकिकों के नामोल्लेख और विना नामोल्लेख के उद्धरण देकर उनकी आलोचना की है। परन्तु वे ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है। इस तरह इस आदि- काल अथवा समन्तभद्र काल में जैन न्याय की एक योग्य और उत्तम भूमिका तैयार हो गयी थी। २. मध्यकाल अथवा अकलंककाल उक्त भूमिका पर जैन न्याय का उत्तुंग और सर्वांगपूर्ण महान् प्रासाद जिस कुशल और तीक्ष्ण बुद्धि ताकिक-शिल्पी ने खड़ा किया, वह है अकलंक । अकलंक के काल में भी समन्तभद्र की तरह जबरदस्त दार्शनिक मुठभेड़ हो रही थी। एक तरफ शब्दाद्वैतवादी भर्तहरि, प्रसिद्ध मीमांसक कुमारिल, न्यायनिष्णात् उद्योतकर प्रभृति वैदिक विद्वान् अपने पक्षों पर आरूढ थे, तो दूसरी ओर धमकीर्ति और उनके तर्कपटु शिष्य एवं व्याख्याकार प्रज्ञाकर,धर्मोत्तर कर्णक गोमिन आदि बौद्ध तार्किक अपने पक्ष पर दृढ़ थे। शास्त्रार्थों और शास्त्र-निर्माण की पराकाष्ठा थी । प्रत्येक दार्शनिक का प्रयत्न था कि वह जिस किसी तरह अपने पक्ष को सिद्ध करे और परपक्ष का निराकरण कर विजय प्राप्त करे। इतना ही नहीं, पर पक्ष को असद् प्रकारों से पराजित एवं तिरस्कृत भी किया जाता था। विरोधी को 'पशु' 'अन्हीक' जैसे शब्दों का प्रयोग करके उसे और उसके सिद्धान्तों को तुच्छ प्रकट किया जाता था। यह काल जहाँ तर्क के विकास का मध्यान्ह माना जाता है वहाँ इस काल में न्याय का बड़ा उपहास भी हुआ है । तत्त्व के संरक्षण के लिए छल, जाति और निग्रहस्थानों का खुलकर प्रयोग करना और उन्हें शास्त्रार्थ का अंग मानना इस काल की देन बन गयी ।३१ क्षणिकवाद, नैरात्म्यवाद, शून्यवाद, विज्ञानवाद आदि पक्षों का समर्थन इस काल में धड़ल्ले से किया गया और कट्टरता से इतर का निरास किया गया । अकलङक ने इस स्थिति का अध्ययन किया और सभी दर्शनों का गहरा एवं सूक्ष्म अभ्यास किया। इसके लिए उन्हें कांची, नालन्दा आदि के तत्कालीन विद्यापीठों में प्रच्छन्न वेष में रहना पड़ा। समन्तभद्र द्वारा स्थापित स्याद्वादन्याय की भूमिका ठीक तरह न समझने के कारण दिडनाग, धर्मकीर्ति, उद्योतकर, कुमारिल आदि बौद्ध-वैदिक विद्वानों ने दूषित कर दी थी और पक्षाग्रही दृष्टि का ही समर्थन किया था। अतः अकलङग ने महा प्रयास करके दो अपूर्व कार्य किये - एक तो स्याद्वादन्याय पर आरोपित दूषणों को दूर कर उसे स्वच्छ बनाया २ और दूसरा कितना ही नया निर्माण किया। यही कारण है कि उनके द्वारा निर्मित महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों में चार ग्रन्थ तो केवल न्याय-शास्त्रपर ही लिखे गये हैं। यहाँ अकलंक के उक्त दोनों कार्यों का कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है -
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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