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________________ जैन न्याय : परिशीलन 109 फलतः वस्तु अनादि, अनन्त, सर्वात्मक और स्वरूप-रहित हो जायेगी । अतः वस्तु स्वरूपचतुष्टय की अपेक्षा भावरूप ही है । इसी तरह वस्तु कथंचित् अभावरूप ही है क्योंकि परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव से वैसी ही अवगत होती है। यदि उसे सर्वथा अभाव रूप ही स्वीकार किया जाय तो विधि रूप में होने वाले सारे ज्ञान और वचन के व्यवहार लुप्त हो जायेंगे और जगत् अन्ध एवं मूक बन जायेगा । अतः वस्तु परचतुष्टय की अपेक्षा से अभाव रूप ही है। इसी प्रकार वस्तु कथंचित् उभयरूप ही है, क्योंकि क्रमशः दोनों विवक्षाएँ होती हैं । वस्तु कथंचित् अवक्तव्य ही है, क्योंकि एकसाथ दोनों विवक्षाएँ सम्भव नहीं है। इन चार भङगों (तत्तद् धर्म के प्रतिपादक उत्तर वाक्यों) को दिखला कर वचन की शक्यता के आधार पर समन्तभद्र २० ने अपुनरुक्त तीन भङग (तीन धर्म के प्रतिपादक तीन उत्तर वाक्य) और योजित करने की सूचना देते हए सप्तभङगी-योजना प्रदर्शित की है। इस तरह समन्तभद्र ने भाव (सत्ता) और अभाव (असत्ता) के पक्षों में होने वाले आग्रह को समाप्त कर दोनों को वास्तविक बतलाया और दोनों को वस्तुधर्म निरूपित किया। इसी प्रकार उन्होंने द्वैत-अद्वैत, नित्य-अनित्य आदि पक्षों के आग्रह को भी समाप्त कर उन्हें वास्तविक सिद्ध किया है। उनका कहना था२८ कि इतर पक्ष के तिरस्कारक 'सर्वथा' के आग्रह को छोड कर उस पक्ष के संग्राहक 'स्यात्' के वचन से वस्तु का निरूपण करना चाहिए। इस निरूपण में वस्तु और उसके सभी धर्म सुरक्षित रहते हैं । एक-एक पक्ष सत्यांशों का ही निरूपण करते हैं, सम्पूर्ण सत्य का नहीं । सम्पूर्ण सत्य का निरूपण तभी सम्भव है जब सभी पक्षों को आदर दिया जाय-उनकी उपेक्षा न की जाय । समन्तभद्र २९ ने स्पष्ट घोषणा की कि निरपेक्ष-इतर तिरस्कारक-पक्ष सम्यक् नहीं हैं, सापेक्ष-इतर संग्राहक-पक्ष ही सम्यक् (सत्यप्रतिपादक) है। आचार्य समन्तभद्र ने प्रमाणलक्षण, नयलक्षण, सप्तभङगीलक्षण, स्याद्वादलक्षण, हेतुलक्षण, प्रमाणफलव्यवस्था, वस्तुस्वरूप, सर्वज्ञसिद्धी आदि जैन-न्याय के कतिपय अंगों-प्रत्यंगों का भी प्रतिपादन किया, जो प्रायः उनके पूर्व नहीं हुआ था अथवा अस्पष्ट था। अतः जैन न्याय के विकास के आदि काल को समन्तभद्रकाल कहना उचित ही है। समन्तभद्र के इस महान कार्य को उत्तरवर्ती, श्रीदत्त, पूज्यपाद, सिद्धसेन, मल्लवादी, सुमति, पात्रस्वामी प्रभृति जैन ताकिकों ने अपनी महत्त्वपूर्ण रचनाओं द्वारा अग्रसर किया। श्रीदत्त ने, जो वेसठ वादियों के विजेता थे, जल्पनिर्णय, पूज्यपाद ने सारसंग्रह सिद्धसेन ने सन्मति, मल्लवादी ने द्वादशारनयचक्र, सुमती ने सन्मतिटीका; पात्रस्वामी ने विलक्षण समर्थन जैसी तार्किक कृतियों को रचा है । दुर्भाग्य से अल्पनिर्णय, सारसंग्रह सन्मतिटीका और त्रिलक्षण समर्थन आज उपलब्ध नहीं हैं, केवल उनके उल्लेख मिलते हैं । सिद्धसेन का सन्मति और मल्लवादी का द्वादशारनयचक्र उपलब्ध है। हमारा अनुमान है कि इस काल में और भी अनेक न्यायग्रन्थ रचे गये होंगे,३०
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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