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STUDIES IN JAINISM नित्यवादी वस्तुमात्र को नित्य बतलाते थे। वे तर्क देते कि यदि वस्तु अनित्य हो तो उसके नाश हो जाने के बाद यह जगत् और वस्तुएँ स्थिर क्यों दिखायी देती है? अनित्यवादी कहता था कि वस्तु प्रतिसमय नष्ट हो रही है, कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है। अन्यथा जन्म, मरण, विनाश, अभाव, परिवर्तन आदि नहीं होना चाहिए, जो स्पष्ट बतलाते हैं कि वस्तु नित्य नहीं है, अनित्य है।
इसी तरह भेदवाद-अभेदवाद, अपेक्षावाद-अनपेक्षावाद, हेतुवाद-अहेतुवाद, दैववाद - पुरूषार्थवाद आदि एक - एक वाद (पक्ष) को मान जाता और परस्पर में संघर्ष किया जाता था ।
जैन तार्किक समन्तभद्र ने इन सभी दार्शनिकों के पक्षों का गहराई और निष्पक्ष दृष्टि से अध्ययन किया तथा उनके दृष्टिकोणों को समझकर स्याद्वादन्याय से उनमें सामञ्जस्य स्थापित किया। उन्होंने किसी के पक्ष को मिथ्या कहकर तिरस्कृत नहीं किया, क्योंकि वस्तु अनन्तधर्मा है। अतः कोई पक्ष मिथ्या नहीं है, वह मिथ्या तभी होता है, जब वह इतर का तिरस्कार करता है।
समन्तभद्र ने वादियों के उक्त पक्ष-युगलों में स्याद्वादन्याय के माध्यम से सप्तभङगी की विशद योजना करके उनके आपसी सघर्षों को जहाँ शमन किया वहाँ उन्होंने तत्त्वग्राही एवं पक्षाग्रहशून्य निष्पक्ष दृष्टि भी प्रस्तुत की। यह निष्पक्ष दृष्टि स्याद्वाददृष्टि ही है, क्योंकि उसमें सभी पक्षों का समादर एवं समावेश है । एकान्त दृष्टियों में अपना अपना आग्रह होने से अन्य पक्षोंका न समादर है और न समावेश है।
समन्तभद्र की यह अनोखी किन्तु सही क्रान्तिकारी अहिंसक दृष्टि भारतीय दार्शनिकों, विशेषकर उत्तरवर्ती जैन ताकिकों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हुई । सिद्धसेन, अकलङक, विद्यानन्द, हरिभद्र आदि ताकिकों ने उनका अनुगमन किया । सम्भवतः इसी कारण उन्हें 'कलियुग में स्याद्वादतीर्थ का प्रभावक' और 'स्थादादाग्रणी' आदि रूपमें स्मृत किया है । यद्यपि स्थाद्वाद और सप्तभंगी का प्रयोग आगमों२१ में तदीय विषयों के निरूपण में भी होता था, किन्तु जितना विशद और विस्तृत प्रयोग एवं योजना उनकी कृतियों में उपलब्ध है उतना उनसे पूर्व प्राप्त नहीं है । समन्तभद्र ने 'नययोगान्न सर्वथा २२, 'नयन्यविशारदः२३ जैसे पदप्रयोगों द्वारा सप्तभङग नयों से वस्तु की व्यवस्था होने का विधान बनाया और 'कयंचित सदेवेष्टं' २४ 'सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादि चतुष्टयात'२३ जैसे वचनों द्वारा उस विधान को व्यवहृत किया है।
उदाहरण के लिए हम उनके भाववाद और अभाववाद के समन्वय को इनकी आप्तमीमांसा से २६ प्रस्तुत करते हैं -
वस्तु कथंचित् भावरूप ही है, क्योंकि स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव से वह वैसी ही प्रतीत होती है। यदि उसे सब प्रकार से भावरूप माना जाय, तो प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अन्यन्ताभाव इन चार अभावों का अभाव हो जायगा,