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जैन न्याय : परिशीलन
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१. दूषणोद्धार
यों अकलडरग ने विभिन्न वादियों द्वारा दिये गये सभी दूषणों का परिहार कर उनके सिद्धान्तों की कड़ी समीक्षा की है। किन्तु यहाँ उनके दूषणोद्धार और समीक्षा के केवल दो स्थल प्रस्तुत किये जाते हैं।
माप्तमीमांसा में समन्तभद्र ने 3 3 मुख्यतया आप्त की सर्वज्ञता और उनके उपदेश स्याद्वाद की सहेतुक सिद्धि की है । तथा सर्वज्ञता-केवल ज्ञान-और स्थाद्वाद में साक्षात् (प्रत्यक्ष)एवं असाक्षात् (परोक्ष) सर्वतत्त्व प्रकाशन का भेद बतलाया है " । कुमारिल ने मीमांसाश्लोकवार्तिक में सर्वज्ञता पर और धमकीर्ति ने प्रमाणवतिक में स्याद्वाद (अनेकान्त) पर आक्षेप किये हैं। कुमारिल कहते हैं -
एवं यैः केवलज्ञानमिन्द्रियाद्यनपेक्षिणः । सूक्ष्मातीतादिविषयं जीवस्य परिकल्पितम् ।। नस्ते तदागमान्सिद्धयन्नच तेनागमो विना।
मीमा. श्लो. ८७
'जो सूक्ष्मादि विषयक अतीन्द्रिय केवलज्ञान पुरुष का माना जाता है वह आगम के विना सिद्ध नहीं होता और उसके विना आगम सिद्ध नहीं होता, इस प्रकार सर्वज्ञता के स्वीकार में अन्योन्याश्रय दोष है।'
अकलंक कुमारिल के इस दूषण का परिहार करते हुए उत्तर देते हैं - एवं यत्केवलज्ञानमनुमानविजृम्भितम् । नस्ते तदागमात् सिद्धयेत न च तेन विनाऽऽगमः ।। सत्यमर्थबलादेव पुरुषातिशयो मत :। प्रभवः पौरुषेयोऽस्य प्रबन्धोऽनादिरिष्यते ।।
न्याय वि. का. ४१२,४१३
'यह सच है कि अनुमान द्वारा सिद्ध केवलज्ञान (सर्वज्ञत्व) आगम के बिना और आगम केवल ज्ञान के विना सिद्ध नहीं होता, तथापि उनमें अन्योन्याश्रय दोष नहीं है। क्योंकि पुरुषातिशय - केवलज्ञान अर्थबल - प्रतीतिवश से माना जाता है और इसलिए वीजाकुर के प्रबन्ध-सन्तान की तरह इन (केवल ज्ञान और आगम) का प्रबन्ध (सन्तान) अनादि कहा गया है ।
यहाँ स्पष्ट है कि समन्तभद्र ने अनुमान से जिस केवलज्ञान (सर्वज्ञता) की सिद्धि की थी, कुमारिल ने उसी में अन्योन्याश्रय दोष दिया है । अकलङकदेव ने सहेतुक उसी दोष का परिहार किया और सर्वज्ञता तथा आगम दोनों को अनादि बतलाया है।