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________________ योग का स्वरूप एवं भेद 81 आ० हरिभद्रसूरि ने अपनी समन्वयवादी दृष्टि का परिचय देते हुए उक्त पांच योग-भेदों की तुलना पातञ्जलयोगदर्शन सम्मत सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञातयोग के साथ की है। उनके मतानुसार सम्प्रज्ञातसमाधि, जिसमें राजस एवं तामस वृत्तियों का सर्वथा निरोध होकर केवल सत्त्वप्रधान प्रज्ञाप्रकर्ष/उत्कृष्ट ज्ञान रूप वृत्ति का उदय होता है, अध्यात्म आदि चार भेदों में समाविष्ट मानी गई है, तथा असम्प्रज्ञातसमाधि, जिसमें सम्पूर्ण वृत्तियों का क्षय होकर आत्मस्वरूप की प्राप्ति होती है, वृत्तिसंक्षययोग के समानान्तर कही गई है।' पातञ्जलयोग सम्मत असम्प्रज्ञातसमाधि जैनमतानुसार सयोगकेवलि व अयोगकेवलि नामक दोनों अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करती है। इनमें से प्रथम सयोगकेवलि की स्थिति रागात्मक विकल्प रूप मनोवृत्तियों और उनके कारणभूत ज्ञानावरणादि कर्मों के उदय के निरोध से उत्पन्न होती है, और दूसरी अयोगकेवलि की स्थिति संपूर्ण चेष्टारूप वृत्तियों और उनके कारणभूत औदारिकादि शरीरों के क्षय से प्राप्त होती है। पहली अवस्था में कैवल्य और दूसरी अवस्था में निर्वाण-पद की प्राप्ति होती है। उपा० यशोविजय जी ने अपने द्वात्रिशद्वात्रिशिका नामक ग्रन्थ (योगावतार द्वात्रिशिका) में आ० हरिभद्र का अनुसरण करते हुए अध्यात्म आदि पांच भेदों में से प्रारम्भिक चार भेदों में सम्प्रज्ञातसमाधि और 'वृत्तिसंक्षय' नामक अन्तिम योग में असम्प्रज्ञातसमाधि को घटित किया है। किन्तु पातञ्जलयोगसूत्र पर वृत्ति लिखते समय उन्होंने असम्प्रज्ञात की भांति सम्प्रज्ञातसमाधि को भी वृत्तिसंक्षय नामक पांचवें भेद में अन्तर्भूत कर दिया है। इसमें उन्होंने वृत्तिसंक्षय के अर्थ को योगबिन्दु में किये गये अर्थ की अपेक्षा अधिक व्यापकता प्रदान कर इसके क्षेत्र को चतुर्थ गुणस्थान से १४वें गुणस्थान तक विस्तृत किया है। साथ ही १२वें गुणस्थान तक प्राप्त होने वाले पृथक्त्ववितर्क-विचार और एकत्ववितर्क-अविचार नामक दो शुक्लध्यानों में असम्प्रज्ञातयोग को अन्तर्भुक्त किया है, जो पातञ्जल योगशास्त्र में वर्णित चार समापत्तियों के साथ तुलना करने पर उचित बैठता है। असम्प्रज्ञातयोग का अन्तर्भाव केवलज्ञान की प्राप्ति से लेकर निर्वाण प्राप्ति तक अर्थात् १३वें और १४वें गुणस्थान में हो जाता है। इन दोनों गुणस्थानों में ज्ञानावरणादि चारों घाति कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने से उत्पन्न कैवल्य अवस्था में कर्मसंयोग की योग्यता और उसमें उत्पन्न होने वाली चेष्टारूप वृत्तियों का समूल नाश हो जाता है। यही सर्ववृत्तिनिरोध रूप असम्प्रज्ञातयोग है। असम्प्रज्ञातयोग को 'संस्कारशेष' कहा गया है, क्योंकि १३वें गुणस्थान में भवोपग्राही अर्थात् अघाती कर्मों का सम्बन्ध मात्र शेष रह जाता है। यही संस्कार है। उसी की अपेक्षा से असंप्रज्ञातयोग को संस्कार. शेष कहा गया है। इस अवस्था में मतिज्ञान के भेदरूप संस्कार समूल नष्ट हो जाते हैं, अर्थात् वहाँ वृत्ति रूप भावमन नहीं रहता। मन के द्वारा विचार तो केवल मति और श्रुतज्ञान में ही किया जाता है। शेष १. सगाधिरेष एवान्यैः संप्रज्ञातोऽभिधीयते । सम्यकप्रकर्षरूपेण वृत्यर्थज्ञानतस्तथा।। असंप्रज्ञात एषोऽपि समाधिर्गीयते परैः । निरुद्धाशेषवृत्त्यादितत्स्वरूपानुवेधतः ।। -योगबिन्दु. ४१६. ४२१ इह च द्विधाऽसंप्रज्ञातसमाधिः, सयोगिकेवलिकालभावी अयोगिकेवलिकालभावी च। तत्राद्यो मनोवृत्तीनां विकल्पज्ञानरूपाणां तदबीजस्य ज्ञानावरणाद्युदयरूपस्यनिरोधादुत्पद्यते. द्वितीयस्तु सकलाशेषकायादि वृत्तीनां तबीजानामौदारिकादिशरीररूपाणागत्य-तोच्छेदात् सम्पद्यते। - वही, स्वो००, गा०४२१ द्विविधोऽप्यय अध्यात्मभावनाध्यानसमतावृत्तिसंक्षयभेदेने पंचधोक्तस्य योगस्य पंचमभेदेऽवतरति। - पातञ्जलयोगसूत्र १/१८ पर यशोविजयवृत्ति पातञ्जलयोगसूत्र, १/२१-४४ (क) विरागप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः। - वही. १/१८ । (ख) सर्ववृत्तिप्रत्यस्तमये संस्कारशेषोनिरोधश्चित्तस्य समाधिरसंप्रज्ञातः। - व्यासभाष्य, पृ०६४ ६. संस्कारशेषत्वं चात्र भवोपग्राहिकाशरूपसस्कारापेक्षया व्याख्येयम्। - पातञ्जलयोगसूत्र, यशो० वृ०.१/१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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