SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 82 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन तीनों (अवधि, मनःपर्याय, और केवल) ज्ञानों में मन की आवश्यकता नहीं रहती। १४वें गुणस्थान में मन, वचन और कायिक प्रवृत्तियों के निरुद्ध हो जाने से शैलेशीकरण एवं मोक्षपद की प्राप्ति होती है। सर्ववृत्तिनिरोध रूप असम्प्रज्ञातसमाधि की चरम परिणति यही है। इस प्रकार वृत्तिसंक्षय की इस व्यापक व्याख्या में योग के समस्त प्रकारों का समावेश किया जाना वर्णनशैली एवं संकेतशैली की विभिन्नता को ही सूचित करता है, वस्तुतः इनमें कोई भेद नहीं है। (च) तात्त्विकादि षड्विध भेद : आ० हरिभद्र ने अन्य दृष्टि से योग के छ: भेद भी किये हैं। ये हैं - तात्विक, अतात्त्विक, सानुबन्ध, निरनुबन्ध, सास्रव और अनायव । इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है - तात्त्विक और अतात्त्विकयोग __ तात्त्विकयोग यथार्थतः पारमार्थिकयोग हैं। जिसमें सम्यक् ज्ञानपूर्वक सुदेव, सुगुरु, सुधर्म पर श्रद्धा की जाती है, जीव, अजीवादि तत्त्वों के स्वरूप का यथार्थ बोध होता है और मोक्ष सुख की एकमात्र इच्छा होती है, वह 'तात्त्विकयोग है। संक्षेप में यथाविधि पारमार्थिक रूप में योग का अनुसरण करना 'तात्त्विकयोग' है। सुदेव, सुगुरु व सुधर्म की श्रद्धा से रहित लोकानुरंजनार्थ औपचारिक रूप से जिस योग का पालन किया जाता है वह 'अतात्त्विकयोग' है।' सानुबन्ध और निरनुबन्धयोग। लक्ष्य को स्वायत्त करने तथा अविच्छिन्न गति से चलने वाला योग 'सानुबन्ध होता है। विद्वान् लोग इसे अतात्त्विक ही मानते हैं, क्योंकि आत्मा संसार में भ्रमण करते हुए अनेक प्रकार के दुःखों का अनुभव करता है और पुण्यवान् जीवात्माओं के भोग-विलास को देखकर उन भोगों को प्राप्त करने के लिए तड़पता हुआ ताप, शीत, डंस आदि परिषहों को सहन करता है। उपवास आदि करता है। इसप्रकार अकामनिर्जरा के द्वारा पुण्यबन्ध से देवत्व, राज्य तथा अनेक भोग-सामग्री प्राप्त करता है, परन्तु संसार में अत्यन्त आसक्ति होने से उस योग का सानबन्ध कर्म अनबंध रूप अतात्त्विकयोग है, जिसे दीर्घ संसार का कारण समझना चाहिए। जिस योग में साधक की साधना में बीच-बीच में विच्छेद या गतिरोध होता रहता है, वह निरनुबन्धयोग है। सम्यग्दर्शन-ज्ञानरूप तत्त्व की यथार्थता को जानकर सच्चरित्र के द्वारा यथाशक्ति अप्रमाद भाव से ध्यान-समाधि में स्थिरता प्राप्त करने से दीर्घकाल तक संसार का बंध नहीं होता। अल्पभवी अर्थात् दो या तीन भव में मोक्ष की ओर गमन करने वाला योग 'निरनुबंधयोग' कहलाता है। साम्रव और अनासवयोग प्रवृत्ति रूप योग ‘सास्रवयोग' है और निवृत्ति रूप योग 'अनासवयोग' है। जो संसार को दीर्घ बनाता १. तात्त्विकोऽतात्त्विकश्चायं सानुबन्धस्तथाऽपरः । सास्रवोऽनास्रवश्चेति संज्ञाभेदेन कीर्तितः ।। - योगबिन्दु. ३२ योगबिन्दु, गा० ३३ पर स्वो० वृ० तात्त्विको भूत एव स्यादन्यो लोकव्यपेक्षया। - योगबिन्दु, गा० ३३ पर स्वो० ० अच्छिन्नः सानुबन्धस्तु छेदवानपरो मतः ।।- योगबिन्दु.३३ ५. योगबिन्दु, (गुजराती अनुवाद) बुद्धिसागरसूरि. पृ० ८२ ललितविस्तरा, पृ०६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy