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योग का स्वरूप एवं भेद
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है, जन्म-मरण के चक्र को बढ़ाता है वह ‘साम्रवयोग' है, और जो इस चक्र को रोकता है वह अनास्रवयोग'
पुण्य-पाप रूप जीवहिंसा से युक्त यज्ञ-याग कराने, आहुति डालने, बलि देने आदि अनेक प्रकार के पापाचरण जीवात्मा से संबंध जोड़कर आत्मा को दीर्घतर संसार में भ्रमण कराते हैं, इसलिए 'आस्रवयोग' कहलाते हैं। सम्यग्दर्शन सहित पांच महाव्रतों को धारण कर अप्रमादयुक्त पांच समिति, तीन गुप्ति सहित धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान में प्रवृत्ति करने वाले योगी को 'अनास्रवयोग' होता है। (छ) स्थानादि पंचविध योग:
योग से अभिप्राय मोक्ष के कारणभूत आत्मव्यापार से है। हरिभद्रसूरि ने स्थान, उर्ण, अर्थ, आलम्बन और अनालम्बन - इन पांच व्यापारों को आत्मव्यापार में परिगणित कर योग के पांच भेद किये हैं। उपा० यशोविजय ने ज्ञानसार में उक्त पंचविधयोग को समस्त आचारों में विशिष्ट मानते हुए ऊर्ण के स्थान पर वर्ण तथा अनालम्बन के स्थान पर एकाग्रता शब्द का प्रयोग किया है। मोक्ष के कारण होने से ही इनकी योगरूपता सिद्ध होती है। उक्त पांच व्यापारों में प्रथम दो का संबंध बाह्यक्रिया से है तथा पश्चातवर्ती तीन का सम्बन्ध ज्ञान या चिन्तन से है, इसीलिए इन्हें कर्मयोग और ज्ञानयोग इन दो भागों में विभाजित कर दिया गया है। कर्मयोग बाह्य आध्यात्मिक व्यापार होने से योग का 'बहिरंग साधन' है और ज्ञानयोग आन्तरिक आध्यात्मिक व्यापार होने से योग का 'अंतरंग साधन' कहा जा सकता है।
१. स्थान __'स्थान' शब्द से तात्पर्य स्थित होने से है। मोक्ष के हेतुभूत धर्मव्यापारों में 'आसन' की विशिष्ट महत्ता है, क्योंकि इनको क्रियान्वित करने के लिए शरीर की स्थिरता अनिवार्य है। महर्षि पतञ्जलि के अष्टांगयोग में तृतीय अंग आसन है। जैनयोग में 'आसन' के अर्थ में 'स्थान' शब्द का प्रयोग मिलता है।" आसन का अर्थ है - 'बैठना' । 'स्थान' का अर्थ है - 'गति की निवृत्ति' । स्थिरता आसन का महत्वपूर्ण स्वरूप है। वह खड़े होकर, बैठकर और लेटकर - तीनों प्रकार से प्राप्त की जा सकती है। इस दृष्टि से 'आसन' की अपेक्षा 'स्थान' से शब्द अधिक व्यापक है। इसीलिए आ० हरिभद्रसूरि ने 'आसन' की अपेक्षा 'स्थान' शब्द का उपयोग करना उचित समझा। यहाँ 'स्थान' शब्द से तात्पर्य स्थित होने से है। इसमें आसनादि क्रियाओं का विधान है। आ० हरिभद्र ने किसी आसनविशेष अथवा स्थितिविशेष का उल्लेख
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१. सास्रवो दीर्घसंसारस्ततोऽन्योऽनास्रवः परः ।। - योगबिन्दु, ३४ २. योगबिन्दु, (गुज० अनु०) पृ०८२-८३ (क) मोक्खेण जोयणाओ जोगो सव्वो वि धम्मवावारो।
परिसुद्धो विन्नेओ ठाणाइगओ विसेसेणं ।।
ठाणुन्नत्थालंबणरहिओ तन्तम्मि पंचहा एसो | - योगविंशिका, १.२ (ख) स्थानोर्णालंबनतदन्ययोग परिभावनं सम्यक् ।
परतत्ययोजनमलं योगाभ्यास इति तत्त्वविदः ।। - षोडशक, १३/४ मोक्षेण योजनाद् योगः सर्वेऽप्याचार इष्यते । विशिष्यस्थानवर्णार्थालम्बनैकाग्रयगौचरैः ।। - ज्ञानसार, २७/१ (क) दुगमित्थकम्मजोगो तहा तियं नाणजोगो उ ।। - योगविंशिका, २ (ख) कर्मयोग द्वयं तत्र, ज्ञानयोगं त्रयं विदुः ।।-ज्ञानसार, २७/२ यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावंगानि। - पातञ्जलयोगसूत्र. २/२६ (क) तिति तहिं तेण ठाणं। -आवश्यकचूर्णि, पृ०४४
(ख) तिष्ठति स्वाध्याय व्यापृता अस्मिन्निति स्थानम्। - व्यवहारभाष्य, ३ टी० पत्र ५४ ८. स्थीयतेऽनेनेति स्थानम्। - योगविंशिका, गा०२ पर यशोविजय वृत्ति
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