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________________ 80 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन अपुनर्भाव रूप से जो निरोध होता है वह वृत्तिसंक्षय है। उनका कहना है कि आत्मा स्वभाव से ही निस्तरंग सागर के समान निश्चल है। जैसे वायु के सम्पर्क से उसमें तरंगें उठने लगती हैं, वैसे ही मन और शरीर रूप वायु के संयोग से आत्मा में संकल्प-विकल्प और परिस्पन्द जैसी अनेक प्रकार की चेष्टारूप वृत्तियाँ उठने लगती हैं। इनमें विकल्प रूप वृत्तियों का उदय मनोद्रव्य के संयोग से होता है और चेष्टारूप वृत्तियों की उत्पत्ति शरीर के संबंध से होती है। इन विकल्प और चेष्टारूप वृत्तियों का निर्मूल नाश ही 'वृत्तिसंक्षययोग' है। यह " त्तिसंक्षययोग' साधक को केवलज्ञान की प्राप्ति के समय और अयोगकेवली की स्थिति में उपलब्ध होता है। यद्यपि वृत्तिनिरोध उच्चतर ध्यान आदि की अवस्था में भी होता है, किन्तु सम्पूर्ण वृत्तियों का निरोध तो “वृत्तिसंक्षययोग' में ही संभव है। 'वृत्तिसंक्षय' योग से साधक को कैवल्य, शैलेशी अवस्था तथा निर्बाध आनन्ददायक, परमानन्दमय मोक्ष-पद की प्राप्ति होती है। जैन दर्शन के अनुसार १३वें गुणस्थान में कैवल्य की प्राप्ति होती है जिसमें, विकल्प रूप वृत्तियाँ निर्मूल हो जाती हैं, और १४वें गुणस्थान में शैलेशीकरण तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है, जहाँ अवशिष्ट चेष्टारूप वृत्तियों का आत्यन्तिक क्षय हो जाता है। उपर्युक्त दोनों अवस्थाओं को जैन परिभाषा में क्रमशः ‘सयोगकेवलि' तथा 'अयोगकेवलि' नाम दिया गया है। उक्त दोनों अवस्थाओं को जैनेतर परिभाषा में क्रमशः 'जीवन्मुक्ति' और 'विदेहमुक्ति' कहा जाता है। अतः स्पष्ट है कि “वृत्तिसंक्षययोग' आध्यात्मिक उत्क्रान्ति की पराकाष्ठा है, अर्थात् मोक्ष के प्रति साक्षात् कारण है, इसलिए इसे प्रधानयोग समझना चाहिये। अध्यात्म आदि पूर्ववर्ती चार योग चूँकि प्रधान योग वृत्तिसंक्षय के कारण हैं, इसलिए योग कहे जाते हैं। उपर्युक्त पांचों प्रकार के योग, साधक के आध्यात्मिक विकासक्रम को सूचित करते हैं। आ० हरिभद्रसूरि स्वयं इस बात को स्वीकार करते हैं। उनके कथनानुसार साधक इन पांचों प्रकार के योगों को क्रमशः प्राप्त करता हुआ 'केवलज्ञान' प्राप्त करता है। अध्यात्मादि तीन योगों का पालन करने से साधक के भावों और चारित्र की शुद्धि होती है, जिससे साधक के आयुष्यकर्म समाप्त हो जाते हैं और वह 'समता' नामक चतुर्थ योग को प्राप्त करता है। 'समतायोग' में साधक क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होता है। तत्पश्चात् उसे अल्पकाल में ही 'केवलज्ञान' की प्राप्ति होती है, जो 'वृत्तिसंक्षय' नामक योग की प्रथम उपलब्धि है। २. १. (क) अन्यसंयोगवृत्तीनां, यो निरोधस्तथा तथा। अपुनर्भावरूपेण स तु तत्संक्षयो मतः ।। - योगबिन्दु, ३६६ (ख) विकल्पस्पन्दरूपाणां वृत्तीनामन्यजन्मनाम् । अपुनर्भावतो रोधः प्रोच्यते वृत्तिसंक्षयः ||-द्वात्रिंशदवात्रिंशिका, १८/२५ इह स्वभावत एव निस्तरंगमहोदधिकल्पस्यात्मनो विकल्परूपाः परिस्पन्दरूपाश्च वृत्तयः सर्वा अन्यसंयोगनिमित्ता एव । तत्र विकल्परूपास्तथाविधमनोद्रव्यसंयोगात् परिस्पन्दनरूपाश्च शरीरादिति। ततोऽन्यसंयोगे या वृत्तयः तासां यो निरोधः तथा तथा केवलज्ञानलाभकालेऽयोगिकेवलिकाले च अपुनर्भावरूपेणपुनर्भवनपरिहाररूपेण स तु-स पुनः । तत्संक्षयो वृत्तिसंक्षयो मत इति ।- योगबिन्दु, गा० ३६६ पर स्वो० वृ० (क) अतोऽपि केवलज्ञानं शैलेशीसंपरिग्रहः । । मोक्षप्राप्तिरनाबाधा सदानन्दविधायिनी ।। - योगबिन्दु, ३६७ (ख) केवलज्ञानलाभश्च शैलेशीसंपरिग्रह: । मोक्षप्राप्तिरनाबाधा फलमस्य प्रकीर्तितम् ।। -द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, १८/२६ ज्ञानार्णव, ३६/५१-५३ पंचसंग्रह (संस्कृत). १/४६-५० एवमासाद्य चरमं जन्माजन्मत्वकारणम् । श्रेणिमाप्य ततः क्षिप्रं केवलं लभते क्रमात् ।। - योगबिन्दु, ४२० ॐ ॐ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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