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योग का स्वरूप एवं भेद
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में माध्यस्थ्यवृति को 'समता' कहा है। समता अर्थात माध्यस्थ भाव आने से मन का उद्वेग नष्ट हो जाता है। ध्यानयोग और समतायोग में अन्योऽन्याश्रय संबंध है क्योंकि ध्यान के बिना समतायोग सम्भव नहीं होता और समता के बिना ध्यानयोग संभव नहीं। अतः ध्यानयोग को साधने के लिए समतायोग की पूर्ण आवश्यकता है। समतायोग में जो प्राणी आचरण करता है, उसको अनेक लब्धियाँ प्राप्त होती हैं। फिर साधक की तत्त्व बुद्धि इतनी स्थिर हो जाती है कि वह उन लब्धियों अर्थात् असाधारण शक्तियों का कभी उपयोग नहीं करता, वह उनको स्थूल जानकर उनमें लोभ नहीं करता। इस योग में सूक्ष्मकर्मों का भी क्षय हो जाता है, उससे विशिष्ट चारित्र जैसे, 'यथाख्यातचारित्र' और 'केवलज्ञानदर्शन' को आवृत्त करने वाले कर्मो का नाश हो जाता है। साधक को संसार से किसी भी प्रकार का सुख मिलने की अपेक्षा नहीं रहती अर्थात् उसका संसार से संबंध विच्छेद हो जाता है। संक्षेप में समतायोग के तीन फल बताये गये हैं - लब्धियों का अप्रवर्तन, सूक्ष्मकर्मों का क्षय और अपेक्षा तंतुओं का विच्छेद। ५. वृत्तिसंक्षययोग
'वृत्तिसंक्षय' आ० हरिभद्रसूरि द्वारा निरूपित योगों में अन्तिम है। सम्यग्दर्शन और ज्ञान से युक्त अध्यात्मयोग के साधक को अनुक्रम में भावनायोग, ध्यानयोग और समतायोग की प्राप्ति होती है। भावनादि तीनों योगों के अभ्यास से वृत्तिसंक्षययोग सिद्ध होता है। आत्मा और कर्म के संयोग की अनादिकालीन योग्यता का संक्षय (निर्मूल नाश) होना वृत्तिसंक्षय है। आत्मा की सूक्ष्म व स्थूल सभी चेष्टाओं को 'वृत्तियाँ कहा जाता है। ये वृत्तियाँ आत्मेतर/विजातीय पदार्थों तथा अनादि अशुभवृत्तियों अर्थात् कर्मबन्ध की योग्यता रूप अन्यान्य हेतुओं के संयोग से उत्पन्न होती हैं, इसलिए इन्हें योग्यता (वृत्तियाँ) कहा जाता है। अतः आत्मा की स्थूल-सूक्ष्म चेष्टाओं और उनके हेतुभूत कर्मसंयोग की योग्यता के अपगम अर्थात् हास को वृत्तिसंक्षय' कहते हैं। यह 'वृत्तिसंक्षय' ग्रन्थिभेद से आरम्भ होकर अयोगकेवली नामक चौदहवें गुणस्थान में समाप्त होता है। आ० हरिभद्रसूरि 'वृत्तिसक्षययोग' का स्वरूप प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि आत्मा में मन और शरीर के संयोग से उत्पन्न होने वाली विकल्परूप तथा चेष्टारूप वृत्तियों का
१. सगता रागद्वेषहेतुषु मध्यस्थता। - योगशास्त्रम, स्वोपज्ञविवरण ३/८२ पृ० २. तानेवार्थान् द्विषतस्तानेवार्थान् प्रलीयमानस्य ।
निश्चयतो नानिष्ट न विद्यते किंचिदिष्ट वा ।। - उद्धृत् : द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १८/२२ स्वो०१० विनैतया न हि ध्यानं ध्यानेनेयं विना च न । ततः प्रवत्तचक्रं स्यादद्वयमन्योऽन्यकारणात ।।-द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, १८/२३ (क) ऋद्धयप्रवर्तन चैव सूक्ष्मकर्मक्षयस्तथा।
अपेक्षातन्तुविच्छेदः फलमस्याः प्रचक्षते ।। - द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, १८/२४; योगबिन्दु. ३६५ (ख) ऋद्धीनामामर्षांषध्यादीनामुपजीवनेनाप्रवर्तनमव्यापारणं। सूक्ष्माणां केवलज्ञानदर्शनयथाख्यातचारित्राद्यावरकाणां कर्मणा
क्षय । तथेति समुच्चये। अपेक्षैव बन्धनहेतुत्वात्तन्तुस्तद्वयवच्छेदः फलमस्याः समतायाः प्रचक्षते विचक्षणाः ।
__ - द्वात्रिंशदवात्रिंशिका, १८/२४ स्वो०१० भावनादित्रयाभ्यासाद वर्णितो वृत्तिसंक्षयः ।। स चात्मकर्मसंयोगयोग्यतापगमोऽर्थतः ।। - योगबिन्दु, ४०५ स्थूलसूक्ष्मा यतश्चेष्टा आत्मनो वृत्तयो मताः । अन्यसंयोगजाश्चैता योग्यता बीजमस्य तु ।। - वही, ४०६ वृत्तिक्षयो हि आत्मनः कर्मसंयोगयोग्यतापगमः, स्थूलसूक्ष्मा ह्यात्मनश्चेष्टावृत्तयः तासां मूलहेतुः कर्मसंयोगयोग्यता... |
- पातञ्जलयोगसूत्र, १/१८ पर यशो० वृ० सा चाकरणनियमेन ग्रन्थिभेदे उत्कृष्टमोहनीयबन्धव्यवच्छेदेन तत्तद्गुणस्थाने तत्तत्प्रकृत्यात्यन्तिकबन्ध व्यवच्छेदस्य हेतुना क्रमशो निवर्तते । - पातञ्जलयोगसूत्र, १/१८ पर यशो० वृ०
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