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. पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
आत्मा का उपयोग भी साथ ही होता है। जैनग्रन्थों के अनुसार एकाग्रचिंतानिरोध 'ध्यान' है। विद्वानों की दृष्टि में एकाग्रता और चिन्तानिरोध - दो ध्यान हैं, जिनमें चिन्तानिरोध ध्यान उच्च सोपान से सम्बद्ध है। - सामान्यतः चित्त को किसी विषय पर केन्द्रित करना 'ध्यान' है। तत्त्वार्थसूत्र में लिखा गया है कि अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त उत्तम संहनन करने वाले जीव की एक ही विषय पर सर्वथा ध्येय विषय में एकाकारवृत्ति का प्रवाहित होना 'ध्यान' है। महर्षि पतञ्जलि ने भी ध्येय में चित्त की एकतानता को 'ध्यान' कहा है।
ध्यानयोग में आत्मा में एक विषय में एकाग्रता इतनी बढ़ जाती है कि बाद में उससे पृथक् अन्य विषय पर विचार नहीं होता तथा बोध बहुत उन्नत हो जाता है। आ० हरिभद्र व उपा० यशोविजय का मन्तव्य है कि चित्तगत खेद, उद्वेग, भ्रम, उत्थान, क्षेप, आसंग, अन्यमुद तथा रुग् (रोग, पीड़ा) इन आठ दोषों का त्याग करने पर ही ध्यानयोग की प्राप्ति होती है अन्यथा नहीं। ध्यानयोग आत्मा के यथार्थ स्वरूप को प्रकट करने का प्रबलतम साधन है। इससे जगत् के समस्त
हो जाते हैं और चित्त में स्थिरता आती है। संसार से संबंध-विच्छेद हो जाता है तथा आत्मा में सूर्य के समान तेज व शक्ति प्रकट होती है।
४. समतायोग
___व्यवहारिक दृष्टि से अविद्या द्वारा कल्पित इष्ट एवं अनिष्ट वस्तुओं के प्रति अथवा शुभाशुभ परिणामों के प्रति तटस्थता रखना 'समता है। आगमों के अनुसार शत्रु व मित्र, मणि व पत्थर तथा सुवर्ण और मिट्टी में राग-द्वेष के उत्पन्न न होने को 'समता' कहा गया है। आ० हेमचन्द्र ने रागद्वेष आदि हेतुओं
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१. (क) शुभैकालम्बनं चित्तं ध्यानमाहुर्मनीषिणः ।
स्थिरप्रदीपसदृशं सूक्ष्माभोगसमन्वितम् ।। - योगबिन्दु, ३६२. (ख) उपयोगे विजातीयप्रत्ययाव्यवधानभाक् |
शुभैकप्रत्ययो ध्यानं, सूक्ष्माभोगसमन्वितम् ।।-द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, १८/११ (ग) तुलना : निव्वायसरयणप्पदीपज्झाणमिव निष्पकम्पे | - प्रश्नव्याकरण, संवरद्वार, ५
द्रष्टव्य : तत्त्वार्थसूत्र, ६/२१ पर पं० सुखलाल जी की टिप्पणी । ३. आवश्यकनियुक्ति, १४७७; ध्यानशतक, २
उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्, आमुहूर्तात्। - तत्त्वार्थसूत्र, ६/२७-२८ तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्। - पातञ्जलयोगसूत्र, ३/२ (क) अष्टपृथग्जनचित्तत्यागाद्योगिकुलचित्तयोगेन् ।
जिनरूपं ध्यातव्यं योगविधावन्यथादोषः ।। खेदोद्वेगक्षेपोत्थानभ्रान्त्यन्यमुद्रुगासंगैः ।
युक्तानि हि चित्तानि प्रबन्धतो वर्जयेन्मतिमान् ।। - षोडशक, १४/२.३ (ख) खेदोद्वेगभ्रमोत्थानक्षेपासंगान्यमुद्रुजाम् ।।
त्यागादष्टपृथक् चित्तदोषाणामनुबन्ध्यदः ।। - द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, १८/१२ (क) वशिता चैव सर्वत्र, भावस्तैमित्यमेव च ।
अनुबन्धव्यवच्छेद, उदर्कोऽस्येति तदक्दिः ।। - योगबिन्दु, ३६३ (ख) वशिता चैव सर्वतः भावस्तैमित्यमेव च ।।
अनुबन्धव्यवच्छेदश्चेति ध्यानफलं विदुः ।।-द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, १८/२१ (क) अविद्याकल्पितेषूच्चैरिष्टानिष्टेषु वस्तुषु ।
संज्ञानात् तद्व्युदासेन, समता समतोच्यते ।। - योगबिन्दु, ३६४ व्यवहारकुदृष्ट्योच्चरिष्टानिष्टेषु वस्तुषु ।
कल्पितेषु विवेकेन तत्त्वधी. समतोच्यते ।। - द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १८/२२ (क) सत्तु-मित्त-मणि पाहाण-मट्टियासु रागदोसाभावो समुदाणाम। - धवला. पुस्तक ८, पृ० ८४ (ख) भगवती आराधना, विजयोदया टीका, ७८ (ग) मूलाचार, १/२२ (घ) आचारांगसूत्र, १/३४
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