SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योग का स्वरूप एवं भेद 77 योग के संदर्भ में मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य - ये चार भावनाएँ भावनायोग अथवा अध्यात्मयोग के अनिवार्य अंग हैं।' जैनागमों में भी इन भावनाओं का उल्लेख प्राप्त होता है। आगमोत्तर साहित्य मे सर्वप्रथम तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति ने इनका उल्लेख किया है। पश्चात्वर्ती अन्य जैनाचार्यों ने भी इन चार भावनाओं की चर्चा की है। प्रसिद्ध जैन योगाचार्यों में हेमचन्द्र एवं शुभचन्द्र ने ध्यान को परिपुष्ट करने के लिए उपर्युक्त चार भावनाओं का वर्णन किया है। क्योंकि इन चारों भावनाओं का योग-साधना से घनिष्ठ संबंध है। जब तक चित्त में भावना नहीं आती, तब तक शान्त रस की प्रचुरता नहीं आती। भावनाएँ चूँकि हृदय पर प्रभाव डालती हैं इसलिए इनको योग-साधना का विशिष्ट एवं अनिवार्य भाग माना गया है। इन भावनाओं के अभ्यास से साधक समत्वयोग की साधना करने में समर्थ बनता है, फिर माध्यस्थ्य भावना तो स्पष्टरूपेण समत्वयोग की साधना ही है। इसी प्रकार अन्य तीनों भावनाएँ अध्यात्मयोग में सहायक होती हैं। इसीकारण, इन चारों भावनाओं का योग-भावना के रूप में वर्गीकरण किया गया है। शास्त्रों में कहा गया है कि उपर्युक्त भावनाएँ विवेकशील, गम्भीर-चेता तथा सन्मार्गानुगामी पुरुषों के चित्त में विशेष रूप से उद्भावित होती हैं। वैसे आगमों में भावना के लिए अणुवेक्खा (अनुप्रेक्षा) शब्द का प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ है बार बार देखना, चिन्तन-मनन और अभ्यास करना । शास्त्रों में बारह अनुप्रेक्षाओं का भावना रूप में भी विवेचन उपलब्ध होता है। पातञ्जलयोगसूत्र में योग के संदर्भ में मैत्री, करुणा, मुदिता ओर उपेक्षा - इन चार भावनाओं का विशद वर्णन हुआ है जिनकी व्याख्या हरिभद्र के षोडशक में भी देखने को मिलती है।११ ३. ध्यानयोग भावनायोग का अभ्यास करते-करते सूक्ष्म उपयोग पूर्वक किसी शुभ आलम्बन पर मनोवृत्ति को स्थिर करना 'ध्यान' है। यह ध्यान दीपक की लौ के समान ज्योर्तिमय होता है और उस स्थिरता में सूक्ष्म १. मैत्री प्रमोद कारुण्य-माध्यस्थ्यपरिचिन्तनमा सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाप्रज्ञाप्यगोचरम् ।। - योगबिन्दु, ४०२ आवश्यकसूत्र, ४: उत्तराध्ययनसूत्र. १६/२; सूत्रकृत्रांगसूत्र, १/१५/१३, १/६/३३, १/१/४/२: आचारांगसूत्र, १/४/३ मैत्री प्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि सत्त्वगुणधिकक्लिश्यमानाऽविनेयेषु । - तत्त्वार्थसूत्र, ७/६ अमितगति श्रावकाचार, गा०१; अध्यात्मकल्पद्रुम, गा० ११ ५. (क) मैत्रीप्रमोदकारुण्य माध्यस्थानि नियोजयेत् । धर्मध्यानमुपस्कर्तु, तद्धि तस्य रसायनम् ।।- योगशास्त्र, ४/११७ (ख) चतस्त्रो भावना धन्याः पुराणपुरुषाश्रिताः । मैत्र्यादयश्चिरं चित्ते विधेया धर्मसिद्धये ।। - ज्ञानार्णव, २५/४ ६. जैनयोग : सिद्धान्त और साधना, पृ० २२६ ७. विवेकिनो विशेषेणभवत्येतद् यथागमम् । तथा गम्भीरचित्तस्य सम्यग्मार्गानुसारिणः ।। - योगबिन्दु, ४०३ द्रष्टव्य : भावनायोग - एक विश्लेषण, पृ० १३-१५ प्रशमरतिप्रकरण, १४६-१५०; ध्यानशतक, २, १०. मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्। - पातञ्जलयोगसूत्र, १/३३ ११. (क) परहितचिंता मैत्री, परदुःखविनाशिनी तथा करुणा। परसुखतुष्टिर्मुदिता, परदोषोपेक्षणमुपेक्षा।। - षोडशक, ४/१५ (ख) मैत्री परस्मिन् हितधीः समग्रे, भवेत्प्रमोदो गुणपक्षपातः । कृपा भवार्ते प्रतिकर्तुमीहोपेक्षैव माध्यस्थ्यमवार्यदोषे ।। - अध्यात्मकल्पद्रुम, १/११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy