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________________ 76 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन 'प्रतिक्रमण' का जैनशास्त्रों में बहुत महत्त्व है। इसीलिए समस्त आवश्यक क्रिया को 'प्रतिक्रमण' शब्द से भी कहा जाता है। वैसे 'श्रमण' के लिए निर्धारित षडावश्यकों में इसका उल्लेख मिलता है। 'प्रतिक्रमण' आत्मशुद्धि तथा जीवन-शोधन की श्रेष्ठ प्रक्रिया है, इसलिए आ० हरिभद्र ने इसको अध्यात्म के अंग के रूप में स्वीकार किया है। भावनानुचिन्तन __ मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भावनाओं का चिन्तन-मनन और आचरण करने से अध्यात्मयोग पुष्ट होता है। इसलिए इन्हें अध्यात्मयोग के अनिवार्य अंग कहा गया है। इनका वर्णन आगे किया गया है। २. भावनायोग जिन क्रियाओं, भावों या विचारों से जीव भावित होता है, वह भावना है। आ० हरिभद्र के अनुसार, अध्यात्म का पुनः पुनः अभ्यास - चितन करना भावना है। परिणामस्वरूप मन की स्थिरता से 'भावनायोग' प्रकट होता है। भावना के अभ्यास से रागद्वेषादि क्षीण हो जाते हैं। स्पष्ट शब्दों में, भावना के अभ्यास से काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्ष्या, आदि दोषों से युक्त अशुभ भाव निवृत्त हो जाते हैं, तथा सद्भावनाओं की वृद्धि होती है। जैनागमों में भी भावनायोग की महत्ता प्रकट की गई है। सूत्रकृतांग में कहा गया है कि जिसकी आत्मा भावनायोग से शुद्ध हो जाती है, वह सब दुःखों से मुक्त हो जाता है।' भावना के अनेक प्रकार हैं। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वैराग्यभेद से भावना के पांच प्रकार कहे गये हैं। इसके अतिरिक्त भावना के अनेक और वर्गीकरण भी मिलते हैं। पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएँ हैं। धर्म और शुक्ल ध्यान की चार-चार (मिलित रूप में आठ) अनुप्रेक्षाएँ (भावनाएँ) हैं। ये दोनों आगमकालीन वर्गीकरण हैं। तत्त्वार्थसूत्र में एक वर्गीकरण बारह भावनाओं का" और दूसरा वर्गीकरण चार भावनाओं का प्राप्त होता है। जs श्रमणसूत्र, पृ० २०६-२१० (क) उत्तराध्ययनसूत्र, २६/८-१३ (ख) सामायिके स्तवे भक्त्या वन्दनायां प्रतिक्रमे । प्रत्याख्याने तनूत्सर्गे वर्तमानस्य संवरः 11- योगसारप्राभूत, ५/४६ ३. पासणाहचरियं, देवभद्र. ५/४६० (क) अभ्यासोऽस्यैव विज्ञेयः प्रत्यहं वृद्धिसंगतः । मनः समाधिसंयुक्तः पौनःपुन्येन भावना ।। - योगबिन्दु. ३६० (ख) अभ्यासो वृद्धिमानस्य भावना बुद्धिसंगतः ।-द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १८/६ अस्याध्यात्मस्य अभ्यासोऽनुवर्तनं भावनोच्यते 1- वही. स्वो० वृ०१८/६ ५. भावयन्ते मुमुक्षुभिरभ्यस्यन्ते निरंतरमेता इति भावनातो रागादिक्षय इति। - धर्मबिन्दुप्रकरण, ७५ (क) निवृत्तिरशुभाभ्यासाद् भाववृद्धिश्च तत्फलम् ।। -द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १८/६ (ख) प्रतिपक्षभावनोपहताः क्लेशास्तनवो भवन्ति ।- व्यासभाष्य, पृ० १७० भावणाजोग सुद्धप्पा जले णावा व आहिया । नावा व तीर संपन्ना, सव्वदुक्खा तिउट्ठइ ।। - सूत्रकृतांगसूत्र, १/१५/५ (क) पासणाहचरियं. ५/४६० (ख) ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवैराग्यभेदतः । इष्यते पञ्चधा चेयं दृढ़संस्कारकारणम् ।। - द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १८/१० ६. उत्तराध्ययनसूत्र, १/१७ १०. स्थानांगसूत्र, ४/१/२४७, पृ० १२७ ११. तत्त्वार्थसूत्र, ६/७ १२. वही. ७/६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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