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योग का स्वरूप एवं भेद
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की विधि तथा उपयुक्त स्थान आदि का निरूपण भी आ० हरिभद्र ने किया है, जो प्रायः सभी परम्पराओं में मान्य है।' उन्होंने योगबिन्दु में जप की विधि एवं समयावधि का भी उल्लेख किया है। आत्म-संप्रेक्षण (योग्यतांकन) ___ अन्य विद्वानों के अनुसार अपने औचित्य-योग्यता-सामर्थ्य का विचार कर तदनुसार धर्मव्यापार में प्रवृत्ति करना तथा उसके द्वारा आत्मसंप्रेक्षण (आत्मा के स्वरूप का बोध प्राप्त करना) भी अध्यात्म है। साधक अपनी योग्यता का अंकन तीन प्रकार से कर सक़ता है : १. योग (कायिक, मानसिक, वाचिक प्रवृत्ति) द्वारा, २. जनापवाद (लोगों में अपने संबंध में प्रचलित अपवादों) द्वारा तथा ३. आगमशास्त्रों में वर्णित शकुन आदि चिन्हों द्वारा ३
देववन्दन
देव आदि का भली-भांति वंदन करना, यथाविधि प्रतिक्रमण करना, मैत्री, करुणा, प्रमोद, माध्यस्थ्य रूप भावनाओं का चिन्तन करना तीसरा अध्यात्म है।' प्रतिक्रमण
'प्रति' उपसर्गपूर्वक गमनार्थक 'क्रमु' धातु से प्रतिक्रमण शब्द बना है। इसका अर्थ है - प्रतिकूल पादनिक्षेप अर्थात् सदोष आचरण में जितने आगे बढ़ गये थे उतने ही पीछे हट कर स्वस्थान पर जाना। अतः प्रतिक्रमण का अर्थ हुआ दोषों का प्रायश्चित्त (पश्चात्ताप) करना। आ० हरिभद्रसूरि इसी बात को अन्य शब्दों में स्पष्ट करते हए लिखते हैं कि निषिद्ध आचरणों का सेवन करने से साधना में जो दोष आता है, उसकी भाव-संशुद्धि का परम हेतु प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण क्रिया करने के लिए प्रातःकाल और सायंकाल का समय तो निर्धारित है ही, साथ ही इसको दैनिक छोटी से छोटी क्रिया करने पर तथा विशेष अवसरों पर भी करने का विधान शास्त्रों में मिलता है। आ० हरिभद्रसूरि के मत में प्रमाद के कारण दोष उत्पन्न होने पर भी साधक को दिन में दो बार प्रातः और सायं तो प्रतिक्रमण करना ही चाहिए। यदि दोष न भी उत्पन्न हो, तो भी प्रतिक्रमण करना चाहिए, क्योंकि इससे ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि आत्मगुणों की वृद्धि होती है। इसे उन्होंने तीसरे वैद्य की औषधि के दृष्टांत से स्पष्ट करने का प्रयास किया है।
१. योगबिन्दु, ३८३-३८७ २. स्वौचित्यालोचनं सम्यक् ततो धर्मप्रवर्तनम् ।
आत्मसंप्रेक्षणं चैव तदैतदपरे जगुः ।। - वही, ३८६ योगेभ्यो जनवादाच्च लिंगेभ्योऽथ यथागमम् । स्वौचित्यालोचनं प्राहुर्योगमार्गकृतश्रमाः ।। योगाः कायादिकर्माणि जनवादस्तु तत्कथा ।
शकुनादीनि लिंगानि स्वौचित्यालोचनास्पदम् ।। - वही ३६०, ३६१ ४. देवादिवंदनं सम्यक् प्रतिक्रमणमेव च ।
मैत्र्यादिचिन्तनं चैतत् सत्त्वादिष्वपरे जगुः ।। - वही, ३६७ ५. प्रतीपं क्रमणं प्रतिक्रमणं अयमर्थः शुभयोगेभ्योऽशुभायोगान्तरं क्रान्तस्य शुभेषु एवं क्रमणात्प्रतीपं क्रमणम्।
- योगशास्त्र, स्वो० वृ०३/१२६. निषिद्धासेवनादि यद विषयोऽस्य प्रकीर्तितः । तदेतद् भावसंशुद्धेः कारणं परमं मतम् ।। - योगबिन्दु ४०१ आवश्यकनियुक्ति, (नियुक्तिसंग्रह) गा० १२४५ प्रतिक्रमणमप्येवं सति दोषे प्रभादतः । तृतीयौषधकल्पत्वाद् द्विसन्ध्यमथवाऽसति ।। - योगबिन्दु, ४००
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