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________________ पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन दिया है और जो चारित्र पालन के पथ पर समारूढ़ है, वही अध्यात्मयोग का अधिकारी है। अध्यात्म की उक्त परिभाषा में 'व्रतयुक्त प्राणी द्वारा औचित्यपूर्वक चारित्र पालन करना' से यह ज्ञात होता है कि पंचम गुणस्थानवी जीव ही अध्यात्मयोग का पालन करने में समर्थ हो सकता है, क्योंकि औचित्यपूर्ण चारित्र का पालन करने की योग्यता पांचवें गुणस्थान में ही प्राप्त होती है। व्रतयुक्त देशविरति या सर्वविरति साधक ही अध्यात्मयोग में प्रवृत्त होते हैं। आ० हरिभद्रसूरि के कथन से भी यही सूचित होता है। इसी भाव के आधार पर पंचमगुणस्थान अथवा उच्च भूमिकाओं में स्थित जीव को ही अध्यात्मयोग का अधिकारी समझा जाता हैं। ___ अध्यात्मयोग का पालन करने वाला जीव दूसरों के सुखों से ईर्ष्या, दुःखियों की उपेक्षा, शुभकर्मों से अद्वेष ओर अधर्मियों के प्रति राग-द्वेष आदि सभी अशुभ भावनाओं एवं प्रवृत्तियों का त्याग करता है। उसके ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षय होता है, आत्मशक्ति जागृत होती है, शील का पालन करने से मन की समाधि (शान्ति) प्रकट होती है, वस्तु-तत्त्व का यथार्थ बोध होता है और अमृत के समान ज्ञानादि का सत्य अनुभूत होता है। अध्यात्मयोग के प्रकार आ० हरिभद्रसूरि ने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से अध्यात्मयोग को विविध प्रकार का बताया है। इनके नाम हैं - जप, आत्मसंप्रेक्षण, देववन्दन, प्रतिक्रमण, भावनानुचिन्तन । अध्यात्म के उक्त भेदों की आ० हरिभद्र ने अन्य विद्वानों के मतानुकूल ही व्याख्या की है। जप आ० हरिभद्र का मत है कि जो साधक योग-साधना में अभी प्रविष्ट ही हुआ है अर्थात् जिसने योग का अभ्यास करना प्रारम्भ ही किया है, उसकी दृष्टि में 'जप' ही अध्यात्म है। दूसरे शब्दों में अध्यात्म का प्रारम्भिक रूप 'जप' है। जप की सिद्धि देवता के अनुग्रह से होती है। इस अध्यात्मस्थिति (जप) में साधक देवस्तुति रूप मन्त्र की साधना करता है, जिससे पापरूपी विष का नाश हो जाता है। जप १. चरमे पुद्गलावर्ते यतो यः शुक्लपाक्षिकः । भिन्नग्रन्थिश्चरित्री च, तस्यैवैतदुदाहृतम् ।।- योगबिन्दु,७२ गुणस्थानों का विस्तृत विवेचन के लिए देखें प्रस्तुत ग्रन्थ का 'आध्यात्मिक विकासक्रम' नामक पांचवाँ अध्याय ३. (क) औचित्याद् व्रतयुक्तस्य वचनात् तत्त्वचिन्तनम् ।-योगबिन्दु, ३५८ (ख) देशादिभेदतश्चित्रमिदं चोक्तं महात्मभिः । अत्र पूर्वोदितो योगोऽध्यात्मादिः संप्रवर्तते ।। - वही, ३५७ From the view point of the stage of spiritual development only the souls in the fifth or some higher stage are capable of it. - Studies in jain philosophy, p. 298 सुखीया दुःखितोपेक्षां पुण्यद्वेषमधर्मिषु । रागद्वेषौ त्यजन्नेता लब्ध्वाध्यात्म समाश्रयेत्।।-द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १८/७ ततः पापक्षयः सत्त्वं शीलं ज्ञानं च शाश्वतम् ।। तथानुभवसंसिद्धममृतं ह्यद एव तु ।। - योगबिन्दु, ३५६ : द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, १८/८ तत्त्वचिन्तनमध्यात्ममौचित्यादियुतस्य तु । उक्तं विचित्रमेतच्च तथावस्थादि-भेदतः ।। - योगबिन्दु, ३८० आदिकर्मकमाश्रित्य जपो ह्यध्यात्ममुच्यते । देवतानुग्रहांगत्वादतोऽयमभिधीयते ।।- वही३८१ जपः सन्मन्त्रविषयः स चोक्तो देवतास्तवः । दृष्टः पापापहारोऽस्माद, विषापहरणं यथा ।। - योगबिन्दु. ३८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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